शनिवार, 23 सितंबर 2017
बंगाल का विभाजन अध्भुत घटना।
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On: सितंबर 23, 2017
लॉर्ड कर्जन एक घोर साम्राज्यवादी तथा प्रतिक्रियावादी वायसराय था. वह अंग्रेजों को भारतीयों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ, योग्य और सभ्य मानता था. उसके दिल में भारतीयों के प्रति घृणा भरी थी और भारत को राष्ट्र मानने के लिए वह तैयार ही नहीं था. उसकी इसी रवैये ने भारत में असंतोष और उग्रवाद को बढ़ावा दिया. लॉर्ड कर्जन 1899 ई. से 1905 ई. तक भारत का वायसराय रहा. उसका सम्पूर्ण शासनकाल भूलों और गलतियों के लिए प्रसिद्ध था. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दूत के रूप में कर्जन ने भारत में क्षोभ और असंतोष का तूफ़ान खड़ा कर नव अंकुरित राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने का काफी प्रयत्न किया. बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) की योजना बनाना उसके हर कार्य से ज्यादा खतरनाक कार्य सिद्ध हुआ.
लॉर्ड कर्जन की कूटनीति
हालाँकि उसने बंगाल के विभाजन को प्रशासनिक दृष्टिकोण से आवश्यक बताया था लेकिन वास्तविकता यह थी कि बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) उसकी प्रतिक्रियावादी नीति का ही परिणाम था. लॉर्ड कर्जन का तर्क था कि आकार की विशालता और कार्यभार की अधिकता के कारण बंगाल प्रांत का शासन एक गवर्नर के लिए संभव नहीं है. अतः उसने पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक अलग प्रांत बनाया जिसकी राजधानी ढाका रखी. वस्तुतः बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) का यह तर्क कर्जन का एक बहाना था. उसका वास्तविक उद्देश्य तो बंगाल की राष्ट्रीय एकता को नष्ट कर हिन्दुओं और मुसलामानों के बीच फूट डालना था. उसकी स्पष्ट नीति थी फूट डालो और शासन करो. उसने खुद कहा भी था कि “यह बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) केवल शासन की सुविधा के लिए नहीं की गई है बल्कि इसके द्वारा एक मुस्लिम प्रांत बनाया जा रहा है, जिसमें इस्लाम और उसके अनुयायियों की प्रधानता होगी.” इस प्रकार बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) लॉर्ड कर्जन का धूर्तता और कूटनीति से भरा कार्य था.
स्वदेशी लहर
बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) राष्ट्रीयता के इतिहास में एक मोड़ लानेवाली घटना थी. बंगाल विभाजन ने गंगा नदी के क्षेत्र में एक आग-सी लगा दी और पूरा बंगाल अपमानित और ठगा हुआ महसूस कर रहा था. 16 अक्टूबर, 1905 ई. का दिन जिस दिन बंगाल का विभाजन हुआ, विरोध दिवस के रूप में मनाया गया. जुलूस निकले, प्रदर्शनी हुई और सड़कें वन्दे मातरम् के नारे से गूँज उठीं. बंगाल ही नहीं पूरे देश में उत्तेजना व्याप्त हो गई. विरोध के स्वर को सरकार अनसुना कर रही थी अतः बंग-भंग आन्दोलन ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार का रूप धारण कर लिया. सभी स्कूल-कॉलेज विरोध प्रकट करने लगे.
बंगाल के राष्ट्रीय आन्दोलन के कुचलने के लिए सरकार ने अपना दमनचक्र प्रारम्भ किया. लोगों को जेल में डाल दिया गया और साम्प्रदायिक विभेद फैलाकर दंगे शुरू करवाए गए. दमन के कारण खुले रूप से विद्रोह करना असंभव था. इसलिए बंगाल के नवयुवकों ने गुप्त संगठनों का निर्माण कर अस्त्र-शास्त्रों को इकठ्ठा कर हिंसात्मक ढंग से सरकार का विरोध आरम्भ कर दिया. बंगाल विभाजन से स्वदेशी आन्दोलन को बल मिल गया. विदेशी वस्त्रों को जलाना, विदेशी वस्तुओं के दुकानों पर धरना देना राजनीतिक कार्यक्रम का अंग बन गया.
बंग प्रांत को ऐसे ढंग से बाँटा गया था कि पश्चिम बंगाल की जनसँख्या लगभग 5 करोड़ 40 लाख और पूर्वीय बंगाल की जनसँख्या लगभग 3 करोड़ 10 लाख हो. बंगाल के स्वदेश और स्वभाषा का अभियान रखनेवाले भावुक निवासियों को यह बँटवारा ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी हत्यारे ने उनकी जन्मभूमि को किसी छुरे से काटकर दो टुकड़ों में बाँट दिया ही. सारे प्रांत में एक ऐसा रोषभरा चीत्कार प्रादुर्भूत हुआ, जिसकी प्रतिध्वनि भारत के कोने-कोने से सुनाई पड़ने लगी.
बंगाल विभाजन के परिणाम
बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) के परिणाम बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए. अब राष्ट्रवादियों का रोष चरम-सीमा तक पहुँच गया और भारत में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हुई. वास्तव में अब तक कोई ऐसी घटना नहीं घटी थी, जिसने भारतीय राजनीति को इस तरह प्रभावित किया हो. बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) को आन्दोलन से घबरा कर सरकार ने रद्द तो कर दिया लेकिन विरोध का जो ज्वार एक बार उठा वह फिर रुका नहीं. कर्जन ने बंगाल विभाजन के द्वारा भारतीय राष्ट्रीयता को कुचलने का प्रयास किया था पर वह और ज्यादा बाधा ही. कर्जन की इच्छा थी कि ब्रिटिश साम्राज्य सुरक्षित हो और उसे स्थायित्व प्रदान हो पर बंगाल विभाजन और अपनी प्रतिक्रियावादी नीतियों के द्वारा उसने ब्रिटिश साम्राज्य का कब्र स्वयं ही तैयार कर दिया. यह बंग-भंग योजना अगली पीढ़ी के लिए वरदान साबित हुई. भारतवासियों में एक नए उत्साह का संचार हुआ. बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) कर्जन की एक बड़ी भूल साबित हुई, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को लाभ पहुँचाने की जगह हानि ही पहुँचाई.
गौतम बुद्ध : बौद्ध धर्म के विषय में संक्षिप्त जानकारी
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On: सितंबर 23, 2017
गौतम बुद्ध का जन्म
बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध थे. गौतम बुद्ध का जन्म 567 ई.पू. (born, according to Wikipedia) कपिलवस्तु के लुम्बनी नामक स्थान पर हुआ था. इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था. गौतम बुद्ध का विवाह 16 वर्ष की अवस्था में यशोधरा के साथ हुआ. इनके पुत्र का नाम राहुल था.
गृह-त्याग और शिक्षा ग्रहण
सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की अवस्था में गृह-त्याग किया, जिसे बौद्धधर्म में “महाभिनिष्क्रमण” कहा गया है. गृह-त्याग करने के बाद सिद्धार्थ (बुद्ध) ने वैशाली के आलारकलाम से सांख्य धर्षण की शिक्षा ग्रहण की. आलारकलाम सिद्धार्थ के प्रथम गुरु हुए थे. आलारकलाम के बाद सिद्धार्थ ने राजगीर के रुद्र्करामपुत्त से शिक्षा ग्रहण की.
ज्ञान प्राप्ति
35 वर्ष की आयु में वैशाख की पूर्णिमा की रात निरंजना (फल्गु) नदी के किनारे, पीपल के वृक्ष के नीचे, सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ था. ज्ञान प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ बुद्ध के नाम से जाने गए.
प्रथम उपदेश
बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ (ऋषिपतनम) में दिया, जिसे बौद्ध ग्रंथों में “धर्मचक्र प्रवर्त्तन” कहा गया है. बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए.
मृत्यु
बुद्ध की मृत्यु 80 वर्ष की अवस्था में 483 ई.पू. में कुशीनगर (देवरिया, उत्तर प्रदेश) में चुंद द्वारा अर्पित भोजन करने के बाद हो गयी, जिसे बौद्ध धर्म में “महापरिनिर्वाण” कहा गया है.
निर्वाण-प्राप्ति
बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के लिए निम्न दस शीलों पर बल दिया है. ये शील हैं –
अहिंसा
सत्य
अस्तेय (चोरी नहीं करना)
अपरिग्रह (किसी प्रकार की संपत्ति नहीं रखना)
मदिरा सेवन नहीं करना
असमय भोजन नहीं करना
सुखप्रद बिस्तर पर नहीं सोना
धन-संचय नहीं करना
स्त्रियों से दूर रहना और
नृत्य-गान आदि से दूर रहना
अष्टांगिक मार्ग (Astangik Marg)
बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग की बात कही है. ये मार्ग हैं –
सम्यक् कर्मान्त
सम्यक् संकल्प
सम्यक् वाणी
सम्यक् कर्मान्त
सम्यक् आजीव
सम्यक् व्यायाम
सम्यक् स्मृति एवं
सम्यक् समाधि
“विश्व दुःखों से भरा है” का यह सिद्धांत बुद्ध ने उपनिषद् से लिया था. बौद्धसंघ में प्रविष्ट होने को “उपसंपदा” कहा गया है. बौद्ध धर्म के तीन रत्न (त्रिरत्न) हैं – बुद्ध, धम्म और संघ. चतुर्थ बौद्ध संगीति के पश्चात् बौद्ध धर्म दो भागों में विभाजित हो गया – हीनयान और महायान.
शुक्रवार, 22 सितंबर 2017
1857 की क्रांति।
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On: सितंबर 22, 2017
आज हम 1857 ki Kranti के विषय चर्चा करेंगे।
ठीक है, तो बताइये कि १८५७ की क्रांति किस ब्रिटिश गवर्नर जनरल के शासन काल में हुई थी? नहीं पता है तो आगे पढ़िए.
लॉर्ड डलहौजी के पश्चात् लॉर्ड कैनिंग गवर्नल जनरल (governor general) बनकर भारत आया और इसी के शासन काल में १८५७ ई. में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह हुआ. शीघ्र ही यह विद्रोह मेरठ, कानपुर, बरेली, झाँसी, दिल्ली और लगभग पूरे भारत में जड़ें जमाने लगा.
ऐसे तो कई लोग 1857 ki Kranti के होने के कई कारण (Causes) देते हैं पर असल में यह एक सैनिक विद्रोह (Sepoy mutiny) ही था. इस विद्रोह का आगाज़ भारतीय सैनिकों द्वारा अपने अँगरेज़ सैनिक अधिकारियों के विरुद्ध हुआ, किन्तु तुरंत ही यह विद्रोह एक बड़ा रूप लेने लगा और एक जनव्यापी विद्रोह बन कर उभरा. 1857 ki Kranti को प्रथम भारतीय संग्राम भी कहा जाता है.
चलिए अब विद्रोह के कारण जान जाएँ (Reasons of this Mutiny)….
१८५७ विद्रोह के कारण
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१. राजनीतिक कारण
२. आर्थिक कारण
३. सामाजिक कारण
४. धार्मिक कारण
५. सैनिक कारण
६. तात्कालिक कारण
1857 के विद्रोह के राजनीतिक कारण- Political Causess of 1857 Revolt
१. लॉर्ड डलहौजी का Doctrine of Lapse, जिसे हिंदी में हड़प नीति कहा जा सकता है या भारत को हड़पने की नीति भी कह सकते हैं, इसके कारण तत्कालीन राजवंशों में असंतोष, आक्रोश व्याप्त हो गया था.
२. भले ही बहादुरशाह जफर एक नाममात्र का शासक था किन्तु उसको चाहने वाले अब भी बाकी थे. अंग्रेजों ने 1835 ई. के पश्चात् मुग़ल बादशाह का आदर सम्मान करना बंद कर दिया था जिससे कुछ बहादुर शाह को चाहने वाले अंग्रेजों से क्षुब्ध थे.
३. नाना साहब की पेंशन बंद हो गयी थी. ऐसे ही कई देशी नरेश व्यक्तिगत रूप से अंग्रेजों से क्षुब्ध चल रहे थे.
४. अंग्रेजों ने नौकरी देने के सम्बन्ध में भारतीयों के साथ भेदभाव किया. इसलिए भारतीय युवा भी ब्रिटिश शासन से खफा थे.
1857 के विद्रोह के आर्थिक कारण- Economic Causes of 1857 Rebellion
१. लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारतीय जमींदारों से उन्हें इनाम में मिली भूमि को छीन लिया था, परिणामस्वरूप भारतीय जमींदार गरीब और निस्सहाय हो गए थे.
२. अंग्रेजों की व्यापारिक नीति के कारण भारतीय उद्योग-धंदे चौपट हो गये थे. धंधे में लगे लोग बेरोजगार हो गए थे.
३. भारतीय किसान भी अंग्रेजों के लगान और रैयतवाड़ी या महलवाड़ी कु-व्यवस्थाओं के कारण क्रोधित थे. किसानों की दशा बद से बदतर हो गयी थी.
1857 के विद्रोह के सामाजिक कारण- Social Causes of 1857 Mutiny
१. अंग्रेजों ने जाति नियमों की उपेक्षा की. विलियम बैंटिक ने सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया. भारतीय रुढ़िवादी आहत थे.
२. अंग्रेजों द्वारा चलाये गए रेल, डाकतार आदि को भारतीयों ने भ्रमवश गलत अर्थ में लिया. उन्होंने सोचा कि ये साधन ईसाई धर्म के प्रचार के लिए है.
३. अंग्रेजों ने पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति, भाषा एवं साहित्य का अधिकाधिक प्रचार किया और भारतीय संस्कृति, भाषा-साहित्य को नीचा दिखाया, इससे भी लोग क्षुब्ध थे.
४. भारतीय रजवाड़ों को अपने अंकुश में रखा. रह-रह कर रजवाड़ों की बेज्जती भी करते थे.
1857 के विद्रोह के धार्मिक कारण- Religious Causes of 1857 ki Kranti
१. अँगरेज़ हिन्दू धर्म व इस्लाम की खुल कर आलोचना करते थे. इससे हिन्दू-मुस्लिम धर्म के लोगों को ठेस पहुँचती थी.
२. शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से अंग्रेजों ने ईसाई धर्म का जोर-शोर से प्रचार किया ताकि आने वाली भारतीय पीढ़ी का ईसाई धर्म के प्रति रुझान हो. इससे भी भारतीय रुष्ट थे.
३. ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों को सरकारी नौकरी, उच्च पद तथा अनेक सुविधाएँ प्रदान की गयीं. हिन्दू एवं मुस्लिम खुद को अलग-थलग महसूस करने लगे.
1857 के विद्रोह के सैनिक कारण- Military Causes of the Great Revolt of 1857
१. भारतीय सैनकों के साथ अँगरेज़ भेद-भाव करते थे, चाहे वह प्रोन्नति या नियुक्ति का मामला हो…हिन्दू-मुस्लिम को हेय दृष्टि से देखा जाता था.
२. प्रथम अफगान युद्ध में अंग्रेजों की पराजय से भारत में भारतीय सैनिकों के आत्मबल में वृद्धि हुई. उन्हें अब लगने लगा की अंग्रेज़ी शक्ति को भी परास्त किया जा सकता है.
३. मंगल पाण्डे वाली स्टोरी तो आप जानते ही होंगे. वही कारतूस वाला मामला. पर इसको तात्कालिक कारण में डालना ठीक होगा.
४. बंगाल सेना में जो ब्राह्मण, राजपूत जाति के थे, वे भारत देश से बाहर जाना नहीं चाहते थे, उन्हें लगता था कि बाहर जाकर उनका धर्म भ्रष्ट हो जायेगा. पर अंग्रेजों ने ऐलान किया कि सैनिकों को सेवा करने के लिए कहीं भी भेजा सकता है.
1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारण- Immediate Causes of 1857 Sepoy Mutiny
लॉर्ड कैनिंग के शासनकाल में सैनिकों को एक ऐसे कारतूस का प्रयोग करना पड़ा, जिसमें गाय और सूअर की चर्बी लगी थी जिसे मुँह से काटना पड़ता था (सच्ची????Oh my god)….इससे हिन्दू और मुसलमान सैनिकों में भारी रोष उत्पन्न हो गया.
विद्रोह के प्रमुख केंद्र और केंद्र के प्रमुख नेता (Leaders of revolt of 1857)
१. दिल्ली- बहादुरशाह (Bahadur Shah)
२. कानपुर- नाना साहब (Nana Saheb)
३. लखनऊ- बेगम हजरत महल (Beghum Hazrat Mahal)
४. इलाहाबाद- लियाकत अली (Liyaqat Ali)
५. झाँसी- रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai)
६. जगदीशपुर (बिहार)- कुँवर सिंह (Kunwar Singh)
विद्रोह की असफलता के कारण (Causes of Failure of 1857 ki Kranti)
1857 ई. में व्यापक पैमाने पर हुए इस विद्रोह में भारतीय सैनिकों की संख्या अंग्रेजों की सैनिकों की संख्या से कहीं अधिक थी. यही कारण रहा कि प्रारम्भ में अनेक स्थानों पर भारतीयों को सफलता प्राप्त हुई. किन्तु अंत में इस विद्रोह का दमन कर दिया गया.
१. विद्रोह का प्रारम्भ समय से पूर्व होना
विद्रोह की तिथि 31 मई, 1857 निर्धारित की गयी थी, किन्तु बैरकपुर में सैनिकों ने उत्साह में आकर समय से पूर्व ही विद्रोह कर दिया जिसके कारण भारत में एक साथ विद्रोह नहीं हो सका.
२. राष्ट्रीय भावना का अभाव
राष्ट्रीय भावना के अभाव के कारण भारतीय समाज के सभी वर्गों ने विद्रोह में साथ नहीं दिया बल्कि सामंतवर्ग अंग्रेजों के साथ ही चिपके रहे.
३. कमजोर नेतृत्व
लोग बहादुरशाह जफर को इतने बड़े विद्रोह का नेतृत्वकर्ता बनाने के फ़िराक में थे जो खुद अपने जीवन की उलटी गिनती गिन रहा था. लोगों की मानसिकता यह थी कि चूँकि मुगलों ने भारत पर इतने साल राज किया है, तो बहादुर शाह को ही इस विद्रोह की कमान सौंपी जाए.
बहादुर शाह एक कवि भी था. विद्रोह की असफलता, दिल्ली की बरबादी और अपनी बेबसी से खिन्न होकर उसने यह शेर लिखा था—
[Tweet “दमदमे में दम नहीं अब खैर मानो जान की… ऐ जफ़र ठंडी हुई शमशीर हिन्दुस्तान की.”]
४. सैनिक दुर्बलता
भारतीय सेना अंग्रेजी सेना के सामने कुछ नहीं थी. यही कड़वा सच है. अंग्रेजी सेना कुशल और संगठित थी और भारतीय सैनिकों में आपस में ही विभिन्न विचार और मत थे.
५. आवागमन तथा संचार के साधन
डलहौजी ने भारत में रेलवे और सड़कों पर बहुत काम किया था. संचार के जाल को फैलाने में उसका बहुत बड़ा हाथ था. ये सड़कें, पटरी पर दौड़ती रेलें अंग्रेजों के लिए युद्ध को दबाने के लिए बहुत सहायक सिद्ध हुए.
६. धन का अभाव
आज भी देश के रक्षा मंत्री कुछ शस्त्रों पर खर्च कर दें तो देश की जनता हो-हल्ला मचाने लगती है, कहने लगती है कि गरीबों पर खर्च करो, गरीबी दूर करो, फिर सैन्य सामग्री लेना. हद है.
1857 के समय भारत में क्रांतिकारियों के पास न पैसे थे और न उचित अस्त्र-शस्त्र. उनकी दयनीय स्थिति का अंग्रेजों ने भरपूर लाभ उठाया.
ये थे सन् सत्तावन की क्रांति में सामरिक हार के कारण. परन्तु इससे यह नहीं समझना कि वह क्रांति, क्रांति नहीं थी, या उसे राजनीतिक सफलता प्राप्त नहीं हुई. वह पहले दर्जे की क्रांति थी और उसे राजनीतिक दृष्टि से असाधारण सफलता प्राप्त हुई. 1958 के अंत में राजनीतिक दृष्टि से वह भारत सर्वथा लुप्त हो चुका था, जो 1857 के मई मास के आरम्भ में था. 57 की क्रांति ने उसकी अंतरात्मा में ऐसा भारी परिवर्तन कर दिया था कि लगभग एक सदी तक उसे दबाने की चेष्टा करके भी अंग्रेज सफल न हो सके. सन् १९४७ का राज्य-परिवर्तन सन् १८५७ की क्रान्ति की प्रेरणा का ही अंतिम फल था.
1857 ई. के विद्रोह के परिणाम (Consequences of revolt of 1857)
1857 ki Kranti के बाद ब्रिटेन में हल्ला मच गया. वहाँ के सरकार को लगने लगा कि ईस्ट इंडिया कंपनी भारत को संभाल नहीं पायेगी. 1858 ई. में ब्रिटिश संसद में एक कानून पारित हुआ और ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत में शासन का अंत कर दिया गया. भारत का शासन अब महारानी के हाथ में चला गया.
1858 ई. में पारित हुए कानून के अनुसार गवर्नर जनरल के पद में परिवर्तन कर उसे वायसराय नाम प्रदान किया गया. Viceroy (Vice = उप और Roy =राजा) अर्थात् राजा का प्रतिनिधि.
सेना का पुनर्गठन किया गया. अँगरेज़ सैनिकों की संख्या में वृद्धि की गयी. तोपखाना पूरी तरह से अंग्रेजों के अधीन कर दिया गया.
देर आये दुरुस्त आये. अब भारतीयों में राष्ट्रीय भावना के विकास ने गति पकड़ ली.
1858 ई. के अधिनियम के अंतर्गत ब्रिटेन में एक “भारतीय राज्य सचिव” का पद बनाया गया. इसके सहयोग के लिए 15 सदस्यों की एक “मंत्रणा परिषद्” भी बनाई गई. इन 15 सदस्यों में 8 लोगों की नियुक्ति सरकार द्वारा किए जाने और 7 की नियुक्ति कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा चुने किये जाने का प्रावधान रखा गया.
सैन्य पुनर्गठन करने के लिए यूरोपीय सैनिकों की संख्या को बढ़ा दिया गया और उन्हें ऊँचे-ऊँचे पोस्ट पर रखा गया. भारतीय सैनिकों की भर्ती में कमी आई. सेना में भारतीयों और अंग्रेजों का अनुपात 2:1 हो गया. विद्रोह के पहले यही अनुपात 5:1 था. तोपखानों पर सम्पूर्ण रूप से अंग्रेजी सेना का अधिकार हो गया.
विद्रोह का महत्त्व : Importance of the 1857 Revolt
1857 के विद्रोह का योगदान इस रूप में है कि इस विद्रोह ने भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने और राष्ट्रीय भावना विकसित करने में मदद किया. इस विद्रोह ने भारतीयों को एकता और संघठन का पाठ पढ़ाया जो भविष्य में सभी भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना. विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन ने भारत के प्रति अपने उत्तरदायित्व को आभास किया और वह भारत की बिगड़ी स्तिथि को सुधारने के लिए अग्रसर हुआ.
गुरुवार, 21 सितंबर 2017
सिख धर्म का संक्षिप्त इतिहास।
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On: सितंबर 21, 2017
सिख धर्म के लोग गुरुनानक देव के अनुयायी हैं. गुरुनानक देव का कालखंड 1469-1539 ई. है. सिख धर्म के लोग मुख्यतया पंजाब में रहते हैं. वे सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास रखते हैं और उनका दृष्टिकोण धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित और उदार है. 1538 ई. में गुरु नानक की मृत्यु के बाद सिखों का मुखिया गुरु कहलाने लगा. सिख धर्म का इतिहास बलिदानों का इतिहास है. आज हम इस आर्टिकल में सिख धर्म के दस गुरुओं और सिख धर्म के गौरवपूर्ण इतिहास (History) को आपके सामने रखेंगे. सिख धर्म के इतिहास (Brief History of Sikh Dharma) में गुरुओं की लिस्ट (Sikh Guru List) कुछ इस तरह है –
गुरुनानक देव (1469-1539)
अंगद (1539-1552)
अमरदास (1552-1574)
रामदास (1574-1581)
अर्जुन (1581-1606)
हरगोविन्द (1606-1645)
हरराय (1645-1661)
हरकिशन (1661-1664)
तेग बहादुर (1664-1675)
गुरु गोविन्द सिंह (1675-1708)
गुरु नानक
गुरु नानक (Guru Nanak) के सिख धर्म के प्रवर्तक थे. 1469 ई. में लाहौर के निकट तलवंडी अथवा आधुनिक ननकाना साहिब में खत्री परिवार में वे उत्पन्न हुए. वे साधु स्वभाव के धर्म-प्रचारक थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दू और इस्लाम धर्म की उन अच्छी बातों के प्रचार में लगाया जो समस्त मानव समाज के लिए कल्याणकारी है. गुरुनानक ने अत्यधिक तपस्या और अत्यधिक सांसारिक भोगविलास, अहंभाव और आडम्बर, स्वार्थपरता और असत्य बोलने से दूर रहने की शिक्षा दी. उन्होंने सभी को अपने धर्म का उपदेश दिया, फलतः हिन्दू और मुसलामान, दोनों ही उनके अनुयायी हो गए. उनके स्वचरित पवित्र पद तथा शिक्षाएँ (बानियाँ) सिखों के धर्मग्रन्थ “ग्रन्थ साहिब” में संकलित हैं. नानक देव की मृत्यु 1539 में हुई.
गुरु अंगद
गुरु अंगद (Guru Angada) सिखों के दूसरे गुरु हुए. इनको गुरु नानक देव ने ही इस पद के लिए मनोनीत किया था. नानक इनको अपने शिष्यों में सबसे अधिक मानते थे और अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर उन्होंने अंगद को ही अपना उत्तराधिकारी चुना. गुरु अंगद श्रेष्ठ चरित्रवान व्यक्ति और सिखों के उच्चकोटि के नेता थे जिन्होंने अनुयायियों का 14 वर्ष तक नेतृत्व किया.
गुरु अमरदास
गुरु अमरदास (Guru Amardas) सिखों के तीसरे गुरु थे. वे चरित्रवान और सदाचारी थे. उन्होंने सिख धर्म का व्यापक ढंग से प्रचार किया.
गुरु रामदास
चौथे गुरु रामदास (Guru Ramdas) अत्यंत साधु प्रकृति के व्यक्ति थे. उन्होंने अमृतसर में एक जलाशय से युक्त भू-भाग दान दिया, जिसपर आगे चलकर स्वर्ण मंदिर (golden temple) का निर्माण हुआ.
गुरु अर्जुन
सिख धर्म के इतिहास (Sikh Dharma History) में गुरु अर्जुन का महत्त्वपूर्ण स्थान है. पाँचवें गुरु अर्जुन (Guru Arjuna)ने सिखों के “आदि ग्रन्थ” नामक धर्म ग्रन्थ का संकलन किया, जिसमें उनके पूर्व के चारों गुरुओं और कुछ हिन्दू और मुसलमान संतों की वाणी संकलित है. उन्होंने खालसा पंथ की आर्थिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान करने के लिए प्रत्येक सिख से धार्मिक चंदा वसूल (धार्मिक कर) करने की प्रथा चलाई. जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन का इस कारण वध कर दिया गया कि गुरु अर्जुन ने जहाँगीर के विद्रोही बेटे शहजादा खुसरो को दयापूर्वक शरण दिया था.
गुरु हरगोविंद
गुरु अर्जुन के पुत्र गुरु हरगोविंद (Guru Hargobind Sahib Ji)ने सिखों का सैनिक संगठन किया. उन्होंने एक छोटी-सी सिखों की सेना एकत्र की. गुरु अर्जुन ने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह करके एक युद्ध में शाही सेना को हरा भी दिया. किन्तु बाद में उनको कश्मीर के पर्वतीय प्रदेश में शरण लेनी पड़ी.
गुरु हरराय और गुरु किशन
गुरु हरराय (Guru Har Rai) और गुरु किशन (Guru Kishan) के काल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी. उन्होंने गुरु अर्जुन द्वारा प्रचलित धार्मिक चंदे की प्रथा और उनके पुत्र हर गोविन्द की की सैनिक-संगठन की नीति का अनुसरण करके खालसा पंथ को और भी शक्तिशाली बनाया.
तेग बहादुर
नवें गुरु तेग बहादुर (Guru Teg Bahadur) को औरंगजेब की दुष्ट प्रकृति का सामना करना पड़ा. उसने गुरु तेग बहादुर को बंदी बनाकर उनके सामने प्रस्ताव रखा कि या तो इस्लाम धर्म स्वीकार करो अथवा प्राण देने को तैयार हो जाओ. बाद में उनका सिर दुष्ट औरंगजेब ने काट डाला. उनकी शहादत का समस्त सिख सम्प्रदाय, उनके पुत्र और अगले गुरु गोविन्द सिंह पर गंभीर प्रभाव पड़ा.
गुरु गोविन्द सिंह
गुरु गोविन्द सिंह (Guru Gobind Singh) ने भली-भांति विचार करके शांतिप्रिय सिख सम्प्रदाय को सैनिक संगठन का रूप दिया जो दृढ़तापूर्वक मुसलामानों के अतिक्रमण और अत्याचारों का सामना कर सके. साथ ही उन्होंने सिखों में ऐसी अनुशासन की भावना भरी कि वे लड़ाकू शक्ति बन गए. उन्होंने अपने पंथ का नाम खालसा (पवित्र) रखा. साथ ही समस्त सिख समुदाय को एकता-सूत्र में बाँध कर के विचार से सिखों के केश, कच्छ, कड़ा, कृपाण और कंघा – पाँच वस्तुओं को आवश्यक रूप में धारण करने का आदेश दिया. उन्होंने पाहुल प्रथा का शुभारम्भ किया जिसके अनुसार सभी सिख समूह में जात-बंधन तोड़ने के उद्देश्य से एक ही कटोरे में प्रसाद ग्रहण करते थे.
गुरु गोविन्द सिंह ने स्थानीय मुग़ल हाकिमों से कई युद्ध किये, जिनमें उनके दो बालक पुत्र मारे भी गए. पर इससे वे हतोत्साहित नहीं हुए. अपनी मृत्यु तक सिखों का संगठन करते रहे. 1708 ई. में एक अफगान ने उनकी हत्या कर दी.
आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ भी संकलित हुईं और यह संकलन “गुरु ग्रन्थ साहब” का परिशिष्ट (appendix) बना. समस्त सिख समुदाय उनका इतना आदर करता था कि उनकी मृत्यु के बाद गुरु पद ही समाप्त कर दिया गया. वैसे उनके मृत्यु के बाद ही बंदा वीर ने सिखों का नेतृत्व भार संभाल लिया. वीर वंदा के नेतृत्व में 1708 ई. से लेकर 1716 ई. तक सिख निरंतर मुगलों से लोहा लेते रहे, पर 1716 ई. में बंदा वीर बंदी बना लिया गया और बादशाह फर्रुखशियर (1713-1719ई.) की आज्ञा से हाथियों से रौंदवादकर उसकी निर्मम हत्या कर दी गई.
सिख धर्म पर प्रहार – काला इतिहास (Black History)
सैकड़ों सिखों को घोर यातनाएँ दी गयीं फिर भी इन अत्याचारों से खासला पंथ की सैनिक शक्ति को दबाया नहीं जा सका. गुरु के अभाव में, व्यक्तिगत नेतृत्व के स्थान पर, संगठन का भार कई व्यक्तियों के एक समूह पर आ पड़ा, जिन्होंने अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अपने सहधर्मियों का संगठन किया.
गुरुनानक देव (1469-1539)
अंगद (1539-1552)
अमरदास (1552-1574)
रामदास (1574-1581)
अर्जुन (1581-1606)
हरगोविन्द (1606-1645)
हरराय (1645-1661)
हरकिशन (1661-1664)
तेग बहादुर (1664-1675)
गुरु गोविन्द सिंह (1675-1708)
गुरु नानक
गुरु नानक (Guru Nanak) के सिख धर्म के प्रवर्तक थे. 1469 ई. में लाहौर के निकट तलवंडी अथवा आधुनिक ननकाना साहिब में खत्री परिवार में वे उत्पन्न हुए. वे साधु स्वभाव के धर्म-प्रचारक थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दू और इस्लाम धर्म की उन अच्छी बातों के प्रचार में लगाया जो समस्त मानव समाज के लिए कल्याणकारी है. गुरुनानक ने अत्यधिक तपस्या और अत्यधिक सांसारिक भोगविलास, अहंभाव और आडम्बर, स्वार्थपरता और असत्य बोलने से दूर रहने की शिक्षा दी. उन्होंने सभी को अपने धर्म का उपदेश दिया, फलतः हिन्दू और मुसलामान, दोनों ही उनके अनुयायी हो गए. उनके स्वचरित पवित्र पद तथा शिक्षाएँ (बानियाँ) सिखों के धर्मग्रन्थ “ग्रन्थ साहिब” में संकलित हैं. नानक देव की मृत्यु 1539 में हुई.
गुरु अंगद
गुरु अंगद (Guru Angada) सिखों के दूसरे गुरु हुए. इनको गुरु नानक देव ने ही इस पद के लिए मनोनीत किया था. नानक इनको अपने शिष्यों में सबसे अधिक मानते थे और अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर उन्होंने अंगद को ही अपना उत्तराधिकारी चुना. गुरु अंगद श्रेष्ठ चरित्रवान व्यक्ति और सिखों के उच्चकोटि के नेता थे जिन्होंने अनुयायियों का 14 वर्ष तक नेतृत्व किया.
गुरु अमरदास
गुरु अमरदास (Guru Amardas) सिखों के तीसरे गुरु थे. वे चरित्रवान और सदाचारी थे. उन्होंने सिख धर्म का व्यापक ढंग से प्रचार किया.
गुरु रामदास
चौथे गुरु रामदास (Guru Ramdas) अत्यंत साधु प्रकृति के व्यक्ति थे. उन्होंने अमृतसर में एक जलाशय से युक्त भू-भाग दान दिया, जिसपर आगे चलकर स्वर्ण मंदिर (golden temple) का निर्माण हुआ.
गुरु अर्जुन
सिख धर्म के इतिहास (Sikh Dharma History) में गुरु अर्जुन का महत्त्वपूर्ण स्थान है. पाँचवें गुरु अर्जुन (Guru Arjuna)ने सिखों के “आदि ग्रन्थ” नामक धर्म ग्रन्थ का संकलन किया, जिसमें उनके पूर्व के चारों गुरुओं और कुछ हिन्दू और मुसलमान संतों की वाणी संकलित है. उन्होंने खालसा पंथ की आर्थिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान करने के लिए प्रत्येक सिख से धार्मिक चंदा वसूल (धार्मिक कर) करने की प्रथा चलाई. जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन का इस कारण वध कर दिया गया कि गुरु अर्जुन ने जहाँगीर के विद्रोही बेटे शहजादा खुसरो को दयापूर्वक शरण दिया था.
गुरु हरगोविंद
गुरु अर्जुन के पुत्र गुरु हरगोविंद (Guru Hargobind Sahib Ji)ने सिखों का सैनिक संगठन किया. उन्होंने एक छोटी-सी सिखों की सेना एकत्र की. गुरु अर्जुन ने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह करके एक युद्ध में शाही सेना को हरा भी दिया. किन्तु बाद में उनको कश्मीर के पर्वतीय प्रदेश में शरण लेनी पड़ी.
गुरु हरराय और गुरु किशन
गुरु हरराय (Guru Har Rai) और गुरु किशन (Guru Kishan) के काल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी. उन्होंने गुरु अर्जुन द्वारा प्रचलित धार्मिक चंदे की प्रथा और उनके पुत्र हर गोविन्द की की सैनिक-संगठन की नीति का अनुसरण करके खालसा पंथ को और भी शक्तिशाली बनाया.
तेग बहादुर
नवें गुरु तेग बहादुर (Guru Teg Bahadur) को औरंगजेब की दुष्ट प्रकृति का सामना करना पड़ा. उसने गुरु तेग बहादुर को बंदी बनाकर उनके सामने प्रस्ताव रखा कि या तो इस्लाम धर्म स्वीकार करो अथवा प्राण देने को तैयार हो जाओ. बाद में उनका सिर दुष्ट औरंगजेब ने काट डाला. उनकी शहादत का समस्त सिख सम्प्रदाय, उनके पुत्र और अगले गुरु गोविन्द सिंह पर गंभीर प्रभाव पड़ा.
गुरु गोविन्द सिंह
गुरु गोविन्द सिंह (Guru Gobind Singh) ने भली-भांति विचार करके शांतिप्रिय सिख सम्प्रदाय को सैनिक संगठन का रूप दिया जो दृढ़तापूर्वक मुसलामानों के अतिक्रमण और अत्याचारों का सामना कर सके. साथ ही उन्होंने सिखों में ऐसी अनुशासन की भावना भरी कि वे लड़ाकू शक्ति बन गए. उन्होंने अपने पंथ का नाम खालसा (पवित्र) रखा. साथ ही समस्त सिख समुदाय को एकता-सूत्र में बाँध कर के विचार से सिखों के केश, कच्छ, कड़ा, कृपाण और कंघा – पाँच वस्तुओं को आवश्यक रूप में धारण करने का आदेश दिया. उन्होंने पाहुल प्रथा का शुभारम्भ किया जिसके अनुसार सभी सिख समूह में जात-बंधन तोड़ने के उद्देश्य से एक ही कटोरे में प्रसाद ग्रहण करते थे.
गुरु गोविन्द सिंह ने स्थानीय मुग़ल हाकिमों से कई युद्ध किये, जिनमें उनके दो बालक पुत्र मारे भी गए. पर इससे वे हतोत्साहित नहीं हुए. अपनी मृत्यु तक सिखों का संगठन करते रहे. 1708 ई. में एक अफगान ने उनकी हत्या कर दी.
आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ भी संकलित हुईं और यह संकलन “गुरु ग्रन्थ साहब” का परिशिष्ट (appendix) बना. समस्त सिख समुदाय उनका इतना आदर करता था कि उनकी मृत्यु के बाद गुरु पद ही समाप्त कर दिया गया. वैसे उनके मृत्यु के बाद ही बंदा वीर ने सिखों का नेतृत्व भार संभाल लिया. वीर वंदा के नेतृत्व में 1708 ई. से लेकर 1716 ई. तक सिख निरंतर मुगलों से लोहा लेते रहे, पर 1716 ई. में बंदा वीर बंदी बना लिया गया और बादशाह फर्रुखशियर (1713-1719ई.) की आज्ञा से हाथियों से रौंदवादकर उसकी निर्मम हत्या कर दी गई.
सिख धर्म पर प्रहार – काला इतिहास (Black History)
सैकड़ों सिखों को घोर यातनाएँ दी गयीं फिर भी इन अत्याचारों से खासला पंथ की सैनिक शक्ति को दबाया नहीं जा सका. गुरु के अभाव में, व्यक्तिगत नेतृत्व के स्थान पर, संगठन का भार कई व्यक्तियों के एक समूह पर आ पड़ा, जिन्होंने अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अपने सहधर्मियों का संगठन किया.
मंगलवार, 19 सितंबर 2017
इंग्लैंड की क्रांति - Revolution of england 1688 in Hindi
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On: सितंबर 19, 2017
जेम्स द्वितीय 1685 ई. में इंग्लैंड का राजा बना. उसे बहुत सुरक्षित सिंहासन प्राप्त हुआ था. परिस्थिति राजतंत्र के पक्ष में थी. विरोधी दल कुचला जा चूका था. राज्य के प्रति निर्विरोध आज्ञाकारिता का सिद्धांत स्वीकृत हो चूका था. संसद के अधिकांश सदस्य राजा के दैवी अधिकार सिद्धांत के समर्थक थे. जेम्स द्वितीय ने स्वयं ही परिस्थिति को विपरीत बना दिया और उसे अंततोगत्वा गद्दी छोड़कर भागना पड़ा. 1688 ई. में हुए इंग्लैंड की क्रांति को “गौरवपूर्ण क्रांति (Glorious Revolution)” भी कहा जाता है.
इंग्लैंड की क्रांति संक्षेप में
1688 ई. की क्रांति जेम्स द्वितीय के शासनकाल में हुई थी. क्रांति के लिए जेम्स द्वितीय ने खुद वातावरण तैयार किया था. उसके कार्यों से सभी दल के लोग असंतुष्ट थे. उन्हें विश्वास हो गया था कि राजा स्वेच्छाचारी शासन की पुनरावृत्ति करना चाहता है. जेम्स द्वितीय रोमन कैथोलिक चर्च की शक्ति को बढ़ाना चाहता था. वह कैथलिकों को राज्य के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना चाहता था. वह किसी भी कानून को स्थगित अथवा रद्द करने के अधिकार द्वारा अपनी सत्ता को सर्वोपरि बनाना चाहता था. वह टेस्ट एक्ट को समाप्त करना चाहता था और इसलिए उसने न्यायालय में अपने समर्थक न्यायाधीशों को ही रहने दिया. वह स्थाई सेना की सहायता से विरोधियों पर नियंत्रण रखना चाहता था. इंग्लैंड की जनता जेम्स द्वितीय के क्रूर शासन को इसलिए बर्दास्त कर रही थी कि उसकी मृत्यु के बाद इंग्लैंड में कैथोलिक शासन का अंत होगा. लेकिन जून, 1688 ई में जेम्स द्वितीय की दूसरी कैथोलिक पत्नी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ. पुत्र के जन्म ने इंग्लैंड की क्रांति को अवश्यम्भावी बना दिया. लोगों को विश्वास हो गया कि जेम्स द्वितीय की नीति अनंत काल तक चलती रहेगी. इस आशंका से लोग भयभीत हो गए. वे क्रांति द्वारा कैथोलिक शासन के अंत का प्रयास करने लगे. प्रतिकूल परिस्थिति के कारण जेम्स द्वितीय ने गद्दी छोड़ दिया. विलियम तृतीय और मेरी को इंग्लैंड का सम्राट और साम्राज्ञी घोषित किया गया. “अधिकारों का घोषणापत्र” तैयार किया गया. जेम्स द्वितीय के सभी कार्यों को अवैध घोषित किया गया. प्रजा तथा संसद के अधिकारों की पुष्टि की गई.
1688 ई. की क्रांति के कारण
1688 ई. के इंग्लैंड की क्रांति के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे –
जेम्स द्वितीय की धार्मिक नीति
जेम्स द्वितीय कट्टर कैथोलिक था. कैथोलिक धर्म के सिधान्तों में उसकी गहरी आस्था थी. वह कैथोलिकों को राज्य के प्रमुख पदों पर नियुक्त करना चाहता था. इस पक्षपात को देखते हुए प्रोटेस्टेंट लोगों ने जेम्स के कार्यों का विरोध करना शुरू कर दिया. विरोधियों का दमन करने के लिए जेम्स द्वितीय ने अनेक कठोर कदम उठाये. हाई कमीशन नामक न्यायालय की स्थापना की गई. कैथोलिक धर्म की आलोचना अथवा निंदा करने का अधिकार किसी को नहीं था. विरोध की परवाह न करते हुए जेम्स द्वितीय ने कैथोलिक धर्म का प्रचार जारी रखा.
फ्रांस के साथ मैत्री सम्बन्ध
जेम्स द्वितीय का विश्वास था कि आवश्यकता पड़ने पर फ़्रांस का राजा लुई चौदहवाँ उसे सेना और धन से सहायता देगा. इस कारण उसने फ्रांस के साथ मैत्री सम्बन्ध बनाए रखना का पूर्ण रूप से प्रयास किया. उसने रोमन कैथोलिकों की सुविधाएँ प्रदान की और प्रोटेस्टेंट धर्म के अनुयायियों पर घोर अत्याचार किया. इंग्लैंड की प्रोटेस्टेंट जनता इस प्रकार के अत्याचार को सहन नहीं कर सकी. उसने जेम्स द्वितीय का विरोध करना शुरू कर दिया.
टेस्ट एक्ट के प्रति उदासीनाता
टेस्ट एक्ट के अनुसार केवल अंग्रेजी चर्च के अनुयायियों को ही राज्य कर्मचारी के रूप में नियुक्त किया जा सकता था. इस नियम के कारण कैथोलिकों की नियुक्ति नहीं की जा सकती थी. इसलिए जेम्स द्वितीय ने टेस्ट एक्ट को रद्द करने का प्रयास किया लेकिन संसद ने ऐसा करने की अनुमति नहीं दी. इससे असंतुष्ट होकर जेम्स द्वितीय ने संसद को ही स्थगित कर दिया.
निलंबन और विमोचन के अधिकार का प्रयोग
जेम्स द्वितीय का कहना था कि आवश्यकता होने पर राजा किसी भी नियम को स्थगित अथवा रद्द कर सकता है. इस अधिकार का प्रयोग करके उसने कैथोलिकों के विरुद्ध बने सभी कानूनों को रद्द कर दिया. इंग्लैंड की जनता ने राजा का विरोध किया.
विश्वविद्यालय में हस्तक्षेप
जेम्स द्वितीय ने विश्वविद्यालय के कार्यों में भी हस्तक्षेप किया. विश्वविद्यालय में बड़े-बड़े पदों पर कैथोलिकों की नियुक्ति की गई. कैंब्रिज विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को पदच्युत कर दिया गया था क्योंकि उसने एक कैथोलिक को डिग्री देने से इनकार कर दिया था. ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में भी कैथोलिक धर्म का प्रचार की व्यवस्था की गई. क्रिस्ट चर्च के अध्यक्ष के पद पर एक कट्टर रोमन कैथोलिक को नियुक्त किया गया. विश्वविद्यालय के कार्यों में हस्तक्षेप से भी इंग्लैंड की जनता असंतुष्ट थी.
धार्मिक न्यायालय की स्थापना
1686 ई. में जेम्स द्वितीय ने धार्मिक न्यायालय की स्थापना की. इस न्यायालय का मुख्य उद्देश्य पादरियों को राजा की इच्छानुसार कार्य करने के लिए बाध्य करना था. धार्मिक न्यायालय द्वारा कैथोलिक धर्म के विरोधियों को क्रूर सजा दी जाती थी.
स्थायी सेना में वृद्धि
जेम्स द्वितीय को सुरक्षित सिंहासन प्राप्त हुआ था. उस समय न तो आंतरिक विरोध की संभावना थी और न विदेशी आक्रमण का भय था. फिर भी जेम्स द्वितीय स्थायी सेना में वृद्धि करना चाहता था. सैनिकों में अधिकांश कैथोलिक थे. इससे लोगों का आतंकित होना स्वाभाविक था. उन्हें विश्वास हो गया था कि जेम्स द्वितीय स्थायी सेना की सहायता से स्वेच्छाचारी शासन की स्थापना करेगा और कैथोलिक धर्म का प्रचार-प्रसार करेगा.
स्कॉटलैंड और आयरलैंड के प्रति नीति
`जेम्स द्वितीय के स्वेच्छाचारी शासन का प्रभाव स्कॉटलैंड और आयरलैंड पर भी पड़ा था. उसने वहाँ भी ऊँचे-ऊँचे पदों पर कैथोलिकों की नियुक्ति की. आयरलैंड के प्रोटोस्टेंट भयभीत हो गए. स्कॉटलैंड में रोमन कैथोलिकों को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी गई. इससे लोगों में असंतोष बढ़ा जिसके कारण आगे चलकर क्रांति संभव हो सकी.
चुनाव में हस्तक्षेप
जेम्स द्वितीय चुनाव में भी हस्तक्षेप करने लगा था. वह संसद के सदस्यों को नामजद (nominate) भी करने लगा था. वह अपने समर्थकों की संख्या संसद में बढ़ाना चाहता था. इससे संसद के सदस्य असंतुष्ट थे.
सात पादरियों का मुकदमा
जेम्स द्वितीय ने 1688 ई. में दूसरी घोषणा प्रकाशित की. उसने राज्य के प्रत्येक चर्च में इसे लगातार दो रविवारों को पढ़ने का आदेश दिया था. राजा की घोषणा की संसद की स्वीकृति प्राप्त नहीं थी. इसलिए राजा के आदेश को स्वीकार करना राजा की निरंकुशता को स्वीकार करना था. कैंटरबरी के आर्कविशप और छ: अन्य विशपों ने राजा के सामने एक आवेदन-पत्र प्रस्तुत कर आदेश को वापस लेने की माँग की. जेम्स द्वितीय ने इनपर राजद्रोह का अभियोग लगाकर मुकदमा चलवाया. लेकिन न्यायालय ने विशपों को निर्दोष घोषित किया. इससे लोगों ने आनंद और उत्साह की लहर दौड़ गई.
पुत्र का जन्म
जैसा हमने ऊपर भी लिखा है कि जेम्स द्वितीय ने अपनी कैथोलिक पत्नी से एक पुत्र को को जन्म दिया. इससे लोगों को लगने लगा कि यह कैथोलिक हमेशा उनपर भविष्य में भी हावी ही रहेंगे. उन्हें विश्वास हो गया कि बच्चे का लालन-पालन कैथोलिक वातावरण में होगा और उसे कैथोलिक शिक्षा दी जाएगी. इस प्रकार जेम्स द्वितीय की मृत्यु के बाद कैथोलिक शासन चलता रहेगा. इस आसह्नका से ही लोग भयभीत हो गए. अब वे क्रांति के द्वारा ही कैथोलिक शासन का अंत कर सकते थे.
क्रांति के परिणाम
राजा की शक्ति में कमी आई.
संसद के अधिकारों में वृद्धि हुई.
क्रांति के बाद अनेक अधिनियम बने.
धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया गया.
नौ-सेना, स्थल सेना आदि के व्यय के ब्योरे और ऋण का अनुमान लगाया.
न्यायालय को स्वतंत्रता मिली.
फ़्रांस को पराजित कर इंग्लैंड ने एक नयी यूरोपीय नीति अपनाई.
स्कॉटलैंड को क्रांति से सांविधानिक और राजनीतिक लाभ प्राप्त हुए.
क्रांति का आयरलैंड पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा. आयरलैंड का ऊन का व्यापार चौपट हो गया.
1688 ई. की क्रांति इंग्लैंड के इतिहास में एक युगांतकारी घटना थी. निरंकुश राजतंत्र की परम्परा समाप्त हो गयी और राजा को वैधानिक सीमा में जकड़ दिया गया. 1689 ई . में अधिकार-विधेयक पारित हुआ. इसके अनुसार, राजा संसद की सहमति के बिना न तो किसी कानून को स्थगित कर सकता था, न किसी नए कानून को लागू कर सकता था, न नया कर लगा सकता था और न किसी व्यक्ति की सजा माफ़ कर सकता था. यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि कैथोलिक या कैथोलिक स्त्री से शादी करने वाला कोई भी व्यक्ति इंग्लैंड की गद्दी का अधिकारी नहीं होगा. निरंकुश राजतंत्र की जगह नियमानुमोदित शासन की स्थापना हुई. संसद की शक्ति बढ़ी. वह राजसत्ता पर नियंत्रण रखने लगी और राजकोष पर उसका एकमात्र अधिकार हो गया.
संसद ने विद्रोही-कानून पास किया गया. इससे सेना पर संसद का नियंत्रण हो गया. त्रैवार्षिक कानून पास कर हर तीसरे वर्ष पर संसद का निर्वाचन अनिवार्य कर दिया गया. सहिष्णुता-कानून पास कर सभी प्रोटेस्टेंट सम्प्रदायों को धार्मिक स्वतंत्रता दी गयी. 1701 ई. में उत्तराधिकार निर्णायक कानून बना. इसके अनुसार ये तय हुआ कि इंग्लैंड का राजा प्रोटेस्टेंट ही होगा. कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका पर संसद का पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो गया. अब राजा की जगह संसद संप्रभु हो गया. राजा की निरंकुशता समाप्त हो गई और संसद की संप्रुभता स्थापित हुई.
सोमवार, 18 सितंबर 2017
संथाल विद्रोह 1855 – The Santhal Rebellion in Hindi
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On: सितंबर 18, 2017
संथाल समुदाय झारखण्ड-बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों के पर्वतीय इलाकों – मानभूम, बड़ाभूम, सिंहभूम, मिदनापुर, हजारीबाग, बाँकुड़ा क्षेत्र में रहते थे. कोलों के जैसे ही संथालों ने भी लगभग उन्हीं कारणों के चलते अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया. इस विद्रोह को भी अंग्रेजी सेना ने कुचल डाला. आइए जानते हैं इस विद्रोह के कारण और परिणाम को. संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion) का दमन किस तरह अंग्रेजों ने किया, इस विद्रोह का महत्त्व क्या है और इस विद्रोह में कौन संथालों के तरफ से आगे खड़ा (प्रमुख नेता) हुआ आदि इस पोस्ट के जरिए जानने की कोशिश करेंगे.
विद्रोह के कारण
संथालों का जीवन-यापन कृषि और वन संपदाओं पर निर्भर था. स्थायी बंदोबस्त (<<पढ़ें) के स्थापना के बाद संथालों के हाथ से खुद की जमीन भी निकल गयी. इसलिए उन्होंने अपना इलाका छोड़ दिया और राजमहल की पहाड़ियों में रहने लगे. यहाँ की जमीन को उन्होंने कृषि के योग्य बनाया, जंगल काटे और घर बनाया. संथालों के इस इलाके को “दमनीकोह” के नाम से जाना गया. सरकार की नज़र दमनीकोह पर भी पड़ी और वहाँ भी लगान वसूलने के लिए आ टपके. फिर वहाँ जमींदारी स्थापित कर दी गई. अब उस इलाके में जमींदारों, महाजनों, साहूकारों और सरकारी कर्मचारियों का वर्चस्व बढ़ने लगा. बेचारे संथालों पर लगान की राशि इतनी रखी गई कि लगान के बोझ तले वे बिखर गए. दमन का तांडव ऐसा था कि महाजन द्वारा दिए गए कर्ज पर 50 से 500% तक का सूद वसूल किया जाने लगा. वे लगान चुकाने में असमर्थ हो गये. इन सब कारणों के चलते संथाल किसानों की दरिद्रता बढ़ गयी. कर्ज न चुकाने के चलते उनके खेत, मवेशी छीन लिए गए. संथालों को जमींदारों, महाजनों का गुलाम बनना पड़ा. संथालों को कहीं से भी न्याय मिलने वाला नहीं था. सरकारी कर्मचारी, पुलिस, थानेदार आदि महाजनों का ही पक्ष लेते थे. संथालों के हित के विषय में सोचना तो दूर, इनके द्वारा संथालों का धन लूटा गया, आदिवासी स्त्रियों की इज्जत लूटी गई. संथालों को इन सब से बाहर निकालने वाला कोई नहीं था. अंततः उनके जीवन की यह निराशा एक दिन सरकार पर कहर बन कर टूट पड़ी.
विद्रोह का स्वरूप और प्रमुख नेता
1855 ई. में संथालों की क्रोध की सीमा पार कर गई. संथालों को न्याय दिलाने के लिए चार भाई सामने आये. उनके नाम थे – सि द् धू, का न्हू, चाँ द और भैरव. इन्होंने संथालों को एकजुट किया. सि द् धू ने खुद को देवदूत बतलाया ताकि संथाल समुदाय उसकी बातों पर विश्वास कर सके. संथालों के अन्दर धर्म भावना पैदा करने के लिए उसने कहा कि वह भगवान् “ठाकुर” के द्वारा भेजा गया दूत है जिन्हें वे रोज पूजते हैं. 30 जून, 1855 ई. को इन भाइयों ने सथालों की एक आमसभा बुलाई जिसमें 10,000 संथालों ने भाग लिया. इस सभा में संथालों को यह विश्वास दिलाया गया कि खुद भगवान् ठाकुर की यह इच्छा है कि जमींदारी, महाजनी और सरकारी अत्याचारों के खिलाफ संथाल सम्प्रदाय डट कर विरोध करें. अंग्रेजी शासन को समाप्त कर दिया जाए.
जुलाई 1855 ई. में सथालों ने विद्रोह का बिगुल बजाया. शुरुआत में यह आन्दोलन सरकार विरोधी आन्दोलन नहीं था पर जब संथालों ने देखा कि सरकार भी जमींदारों और महाजनों का पक्ष ले रही है तो उनका क्रोध सरकार पर भी टूट पड़ा. संथालों ने अत्याचारी दरोगा महेश लाल को मार डाला. बाजार, दुकान सब नष्ट कर दिए और थानों में आग लगा दी. कई सरकारी कार्यालयों, कर्मचारियों और महाजनों पर संथालों ने आक्रमण किया. इसके चलते कई बेक़सूर भी मारे गए. भागलपुर और राजमहल के बीच रेल, डाक, तार सेवा आदि सेवा भंग कर दी गई. संथालों ने अंग्रेजी शासन को समाप्त करने की शपथ ले ली थी. संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion) के आलावा हजारीबाग, बाँकुड़ा, पूर्णिया, भागलपुर, मुंगेर आदि जगहों में आग की तरह फ़ैल रही थी.
संथाल विद्रोह का दमन
ब्रिटिश सरकार संथाल की आक्रमकता देखकर अन्दर से हिल चुकी थी. सरकार ने इस इस हिंसक कार्रवाई को सख्ती से दबाने का ऐलान किया. बिहार के भागलपुर और पूर्णिया से सरकार के द्वारा घोषणापत्र जारी किया गया कि अब संथाल के विद्रोह को जल्द से जल्द कुचल दिया जाए. कलकत्ता केजार बर्रों और पूर्णिया से सेना की एक टुकड़ी संथालों का दमन करने के लिए भेजी गई. फिर उसके बाद दमन का नग्न-नृत्य शुरू हुआ. संथाल के पास अधिक शक्ति नहीं थी और पर्याप्त शस्त्र-अस्त्र भी नहीं थे. मात्र तीर और धनुष से वे कितने दिन टिकते? फिर भी उन्होंने इस दमन का दबाव बहुत बहादुरी से दिया.
अंततः कई संथालों को गिरफ्तार कर लिया गया और 15 हज़ार से अधिक संथाल सैनिकों द्वारा मार गिराए गए. संथाल के नेता भी गिरफ्तार कर लिए गए और मारे गए. अपने नेता के गिरफ्तारी से संथालों का मनोबल टूट गया और फरवरी 1856 ई. तक संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion) समाप्त कर दिया गया.
संथाल विद्रोह का महत्त्व
भले ही हजारों संथालों ने अपने हक के लिए कुर्बानी दी पर उन्होंने ये साबित कर दिया कि निरीह जनता भी दमन और अत्याचार एक हद तक बर्दास्त नहीं कर सकती. सरकार को संथाल की माँगों को बाद में पूरा करने का प्रयास किया जाने लगा. कालांतर में सरकार ने संथालपरगना को जिला बनाया. फिर भी आदिवासियों पर दमन होता ही रहा. संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion) की प्रेरणा लेकर आदिवासियों ने आगे भी सरकार के खिलाफ कई विद्रोह किए.
रविवार, 17 सितंबर 2017
जैन धर्म का इतिहास।
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On: सितंबर 17, 2017
जैन धर्म और बौद्ध धर्म में बड़ी समानता है. किन्तु अब यह साबित हो चुका है कि बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म अधिक प्राचीन है. जैनों का मानना है कि हमारे 24 तीर्थंकर हो चुके हैं जिनके द्वारा जैन धर्म की उत्पत्ति और विकास हुआ. क्या आपको पता है कि जैन धर्म के 13वें तीर्थंकर का नाम क्या है? यदि आप परीक्षा की तैयारी अच्छे से कर रहे हो तो आपको इसका जवाब मालूम होगा. उनका नाम है – पार्श्वनाथ. उनका जन्म ईसा के पूर्व 8वीं शताब्दी में हुआ. पार्श्वनाथ एक क्षत्रिय थे. उनके मुख्य सिद्धांत थे – सदैव सच बोलना, अहिंसा, चोरी न करना और धन का त्याग कर देना.
24 तीर्थंकर के नाम और उनके चिन्ह
1. श्री ऋषभनाथ- बैल
2. श्री अजितनाथ- हाथी
3. श्री संभवनाथ- अश्व (घोड़ा)
4. श्री अभिनंदननाथ- बंदर
5. श्री सुमतिनाथ- चकवा
6. श्री पद्मप्रभ- कमल
7. श्री सुपार्श्वनाथ- साथिया (स्वस्तिक)
8. श्री चन्द्रप्रभ- चन्द्रमा
9. श्री पुष्पदंत- मगर
10. श्री शीतलनाथ- कल्पवृक्ष
11. श्री श्रेयांसनाथ- गैंडा
12. श्री वासुपूज्य- भैंसा
13. श्री विमलनाथ- शूकर
14. श्री अनंतनाथ- सेही
15. श्री धर्मनाथ- वज्रदंड,
16. श्री शांतिनाथ- मृग (हिरण)
17. श्री कुंथुनाथ- बकरा
18. श्री अरहनाथ- मछली
19. श्री मल्लिनाथ- कलश
20. श्री मुनिस्रुव्रतनाथ- कच्छप (कछुआ)
21. श्री नमिनाथ- नीलकमल
22. श्री नेमिनाथ- शंख
23. श्री पार्श्वनाथ- सर्प
24. श्री महावीर- सिंह
महावीर स्वामी
परन्तु जैन धर्म के मूलप्रवर्त्तक के विषय में यदि बात की जाए तो महावीर स्वामी का नाम सामने आता है. इनका जन्म 540 ई.पू. के आस-पास हुआ था. इनके बचपन का नाम वर्धमान था. वह लिच्छवी वंश के थे. वैशाली (जो आज बिहार के हाजीपुर जिले में है) में उनका साम्राज्य था. गौतम बुद्ध की ही तरह राजकुमार वर्धमान ने राजपाट छोड़ दिया और 30 वर्ष की अवस्था में कहीं दूर जा कर 12 वर्ष की कठोर तपस्या की. इस पूरी अवधि के दौरान वे अहिंसा के पथ से भटके नहीं और खान-पान में भी बहुत संयम से काम लिया. सच कहा जाए तो राजकुमार वर्धमान ने अपनी इन्द्रियों को सम्पूर्ण रूप से वश में कर लिया था. 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद, 13वें वर्ष में उनको महावीर और जिन (विजयी) के नाम से जाना जाने लगा. उन्हें परम ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी.
महावीर स्वामी जैन परम्परा के 24वें तीर्थंकर कहलाए. उनके उपदेशों में कोई नई बात नहीं दिखती. पार्श्वनाथ की चार प्रतिज्ञाओं में उन्होंने एक पाँचवी प्रतिज्ञा और शामिल कर दी और वह थी – पवित्रता से जीवन बिताना. उनके शिष्य नग्न घूमते थे इसलिए वे निर्ग्रन्थ कहलाये. बुद्ध की भाँति ही महावीर स्वामी ने शरीर और मन की पवित्रता, अहिंसा और मोक्ष को जीवन का अंतिम उद्देश्य माना. पर उनका मोक्ष बुद्ध के निर्वाण से भिन्न है. आत्मा का परमात्मा से मिल जाना ही जैन धर्म में मोक्ष माना जाता है. जबकि बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म से मुक्ति ही निर्वाण है. लगभग 30 वर्षों तक महावीर स्वामी ने इन्हीं सिद्धांतों का प्रचार किया और 72 वर्ष की आयु में उन्होंने राजगीर के निकट पावापुरी नामक स्थान में अपना शरीर त्याग दिया.
महावीर के उपदेश
महावीर कहते थे कि जो भी जैन निर्वाण को प्राप्त करना चाहता है उसको स्वयं के आचरण, ज्ञान और विश्वास को शुद्ध करना चाहिए और पाँच प्रतिज्ञाओं का पालन अवश्य करना चाहिये. जैन धर्म में तप की बहुत महिमा है. उपवास को भी एक तप के रूप में देखा गया है. कोई भी मनुष्य बिना ध्यान, अनशन और तप किये अन्दर से शुद्ध नहीं हो सकता. यदि वह स्वयं की आत्मा की मुक्ति चाहता है तो उसे ध्यान, अनशन और तप करना ही होगा. महावीर ने पूर्ण अहिंसा पर जोर दिया और तब से ही “अहिंसा परमो धर्मः” जैन धर्म में एक प्रधान सिद्धांत माना जाने लगा.
दिगंबर और श्वेताम्बर
300 ई.पू. के लगभग जैन धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया – दिगंबर और श्वेताम्बर. दिगम्बर नग्न मूर्ति की उपासना करते हैं और श्वेताम्बर अपनी मूर्तियों को श्वेत वस्त्र पहनाते हैं. 2011 के census के अनुसार भारत में जैन धर्म के अनुयायी 44 लाख 51 हजार हैं. इन्हें धनी और समृद्ध वर्ग में गिना जाता है. जैन धर्म के लोग अधिकांश व्यापारी वर्ग के हैं. जैन धर्म का प्रचार सब लोगों के बीच नहीं हुआ क्योंकि इसके नियम कठिन थे. राजाओं ने जैन धर्म को अपनाया और उनका प्रचार भी किया. अधिकांश वैश्य वर्गों ने जैन धर्म को अपनाया. जैन धर्म के अनुयायियों में बड़े-बड़े विद्वान् महात्मा भी शामिल हुए हैं.
शनिवार, 16 सितंबर 2017
अकबर का जीवनकाल और साम्राज्य – Akbar’s Life Story in Hindi
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On: सितंबर 16, 2017
अकबर का उत्तर भारत पर विजय
अकबर मुग़लवंश का तीसरा बादशाह था. वह अपने पिता हुमायूं की मृत्यु के बाद 1556 ई. में सिंहासन पर बैठा. उस समय उसके अधीन कोई ख़ास इलाका नहीं था. उसी वर्ष पानीपत की दूसरी लड़ाई में उसने हेमू पर विजय पाई जो अफगनों के सूर राजवंश का समर्थक था. अब वह पंजाब, दिल्ली, आगरा और पास-पड़ोस के क्षेत्र का स्वामी बन गया. अगले पाँच वर्षों में अकबर ने इस क्षेत्र में अपने राज्य को मजबूत बनाया और पूर्व में गंगा-यमुना के संगम इलाहाबाद तक और मध्य भारत में ग्वालियर और राजस्थान में अजमेर तक अपना राज्य फैलाया. अगले 20 वर्षों में अकबर ने कश्मीर, सिंध और उड़ीसा को छोड़कर पूरे उत्तर भारत को जीत लिया. 1592 ई. तक उसने इन तीनों राज्यों को भी अपने राज्य में मिला लिया. इसके पहले 1581 ई. में उसने अपने छोटे भाई हकीम की बगावत का दमन किया जिसने अपने को काबुल का स्वतंत्र सुल्तान घोषित कर दिया था. दस वर्ष बाद अकबर ने कंधार जीत लिया और बलूचिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया.
दक्षिण भारत पर विजय और अकबर की मृत्यु
उत्तर भारत को जीतने के बाद उसने दक्षिण भारत को जीतने की कोशिश की. 1600 ई. में उसने अहमदनगर पर हमला किया और 1601 ई. में खान देश के असीरगढ़ को जीत लिया. यह उसके जीवन की अंतिम विजय थी. चार साल बाद उसकी मृत्यु हुई. उस समय उसका साम्राज्य पश्चिम में काबुल से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की तराई से दक्षिण में नर्मदा नदी के किनारे तक फैला था.
अकबर का साम्राज्य
अकबर का साम्राज्य 15 सूबों में बँटा था –
काबुल
लाहौर (पंजाब) जिसमें कश्मीर भी शामिल था
मुल्तान-सिंध
दिल्ली
आगरा
अवध
इलाहाबाद
अजमेर
अहमदाबाद
मालवा
बिहार
बंगाल-उड़ीसा
खानदेश
बरार और
अहमदनगर
कुशल प्रशासक
अकबर केवल एक विजेता ही नहीं था वरन् कुशल प्रशासक और साम्राज्य का संस्थापक भी था. उसने ऐसी प्रशासन व्यवस्था की जो उसके पहले के राज्यों की व्यवस्था से उच्चकोटि की थी. उसका राजतंत्र उसके व्यक्तिगत स्वेच्छाचारी शासन और नौकरशाही पर आश्रित था. उसका उद्देश्य बादशाह के व्यक्तिगत अधिकार और राजकोष को बढ़ाना था. बादशाह के हुक्म को उसके मनसबदार पूरा करते थे. मनसबदारों की 3-3 श्रेणियाँ थी, जिनके मंसब 10 से लेकर पाँच हजार तक के होते थे. इन मनसबदारों को वेतन नकद दिया जाता था. उनके ऊपर अंकुश रखने के लिए अनेक नियम बनाये गए थे, विशेष रूप से सवारों की फर्जी सूची रखने पर. हर एक सूबे में एक सूबेदार रहता था जिसको नवाब नाजिम भी कहा जाता है. वह भी अपना छोटा दरबार करता था जैसे कि तुर्क व अफगान सुलतानों के राज में होता था. लेकिन अकबर ने सूबेदारों पर अंकुश लगाया और सूबे के वित्तीय मामलों की देखभाल करने के लिए “दीवान” नामक नया अधिकारी नियुक्त किया.
राजस्व बढ़ाने के लिए राजा टोडरमल की सहायता से अकबर ने भूमि की नाप जोख और पैमाइश कराकर मालगुजारी की नयी व्यवस्था की. रैयत और काश्तकारों से लगान की वसूली की सीधी व्यवस्था चलाई गई. उपज का तिहाई हिस्सा लगान के रूप में नकद अथवा अनाज के रूप में लिया जाता था और उसकी वसूली सरकारी अफसर करते थे.
हिन्दू के प्रति उसका व्यवहार
भारत के मुसलमान शासकों में अकबर का स्थान सबसे ऊपर रखा जाता है. उसके पहले के शासकों ने यहाँ की हिन्दू प्रजा का ख्याल नहीं रखा और उनमें और बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा में लगातार संघर्ष और शत्रुता का व्यवहार चलता रहता था. अकबर ने अपने शासक के आरंभिक वर्षों में यह अनुभव किया कि हिन्दुस्तान का बादशाह केवल मुसलामानों का ही शासक नहीं होना चाहिए. यहाँ के सम्राट को यदि अपने राज्य को मजबूत बनाना है तो उसे हिन्दुओं की राजभक्ति भी प्राप्त करना चाहिए. उसे हिन्दू-मुसलमान, यह भेदभाव नहीं करना चाहिए. इसलिए उसने उदार नीति अपनाई. उसने तीर्थ-यात्राओं के ऊपर लगनेवाले जजिया कर को समाप्त कर दिया जो केवल हिन्दुओं पर लगाया जाता था. उसने हिन्दुओं को भी उनकी प्रतिभा के अनुशासित पदों पर नियुक्त किया. अकबर को राजपूतों का समर्थन मिला और उनकी वीरता के आधार पर अकबर ने अपना साम्राज्य काबुल से बंगाल तक फैलाया.
एक राजपूत सरदार जिसका नाम बीरबल था, वह अपनी इच्छा से बादशाह अकबर की सेवा में आ गया और उसका मुँह-लगा स्नेहपात्र बन गया. अकबर ने उसे “राजा” की पदवी दी. बीरबल बहादुर सेनापति होने के साथ-साथ एक प्रतिभाशाली कवि भी था. अकबर ने उसे “कविराय” की उपाधि से सम्मानित किया था. बीरबल 1586 ई. में पश्चिमोत्तर सीमा के युसूफजाई कबीले पर चढ़ाई करने के लिए मुग़ल सेना का नायक बनाकर भेजा गया और वहाँ युद्ध में मारा गया.
दीन इलाही
अकबर ने हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों की अच्छी बातों को लेकर नया मत चलाने का प्रयत्न किया. इसी उद्देश्य से उसने 1582 ई. में “दीन इलाही” का प्रचलन किया. उसमें कुरान, हिन्दू धर्मशास्त्रों और बाइबिल के सिद्धांतों का समन्वय किया गया था. अकबर सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता के सिद्धांत को मानता था. उसने अपने नए धर्म को दूसरों पर लादने का प्रयास नहीं किया. दीन इलाही एकेश्वरवाद पर आधारित था किन्तु उसमें थोड़ा बहुदेववाद का भी पुट था. इसका उद्देश्य सार्वभौम धार्मिक सहिष्णुता की स्थापना करना था. भारत में, जो धार्मिक भेदभाव से बहुत पीड़ित था, इस प्रकार की सहिष्णुता एक राष्ट्रीय आवश्यकता थी. यह धर्म तर्क पर आधारित था. बहुत कम लोगों ने ही “दीन इलाही” को कबूल किया. अकबर की मृत्यु के बाद यह धर्म लुप्त हो गया.
शुक्रवार, 15 सितंबर 2017
बेसिन की संधि, 1802 का भारतीय इतिहास में महत्त्व
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On: सितंबर 15, 2017
अठारहवीं सदी के आते-आते मराठा साम्राज्य की आंतरिक एकता छिन्न-भिन्न हो गयी और विकेंद्रीकरण की शक्ति प्रबल हो गयी थी. जब मराठा संघ ऐसी बुरी स्थिति से गुजर रहा था तो वेलेजली जिया साम्राज्यवादी ईस्ट इंडिया कंपनी का गवर्नर जनरल बनकर आया. उसने आते ही मराठों के ऊपर भी अपना साम्राज्यवादी चक्र चलाना शुरू किया . जब तक नाना फड़नवीस जिन्दा रहा तब तक वह मराठों के पारस्परिक कलह और प्रतिस्पर्द्धा को रोकने में सफल रहा परन्तु उसकी मृत्यु के बाद मराठा सरदारों के बीच आपसी युद्ध शुरू हुआ. होल्कर ने सिंधिया और पेशवा की संयुक्त सेना को पूना के निकट पराजित किया. पेशवा बाजीराव द्वितीय ने बेसिन में शरण ली और 31 दिसम्बर, 1802 में सहायक संधि स्वीकार कर ली. यह समझौता बेसिन की संधि (Treaty of Bassein) के नाम से जाना जाता है.
बाजीराव II और अंग्रेजों के बीच समझौता
बेसिन की संधि (Treaty of Bassein) के अनुसार दोनों पक्षों ने संकट के समय एक-दूसरे का साथ देने का वचन दिया. पेशवा बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों ने 6000 सैनिक तथा तोपखाना दिए और बदले में पेशवा ने 26 लाख रु. दिए. पेशवा ने यह भी वचन दिया की बिना अंग्रेजों की स्वीकृति के वह किसी यूरोपियन को अपने यहाँ नौकरी नहीं देगा और किसी दूसरे राज्य के साथ भी युद्ध संधि या पत्र-व्यवहार नहीं करेगा. इस प्रकार बेसिन की संधि का भारतीय इतहास में एक विशिष्ट महत्त्व है क्योंकि इसके द्वारा मराठों ने अपने सम्मान और स्वतंत्रता के अंग्रेजों के हाथों बेच दिया जिससे महाराष्ट्र की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा. दूसरी ओर अंग्रेजों को पश्चिम भारत में पैर जमाने का एक अच्छा मौका मिल गया.
हालाँकि यह संधि सभी मराठी सरदारों को मंजूर नहीं था इसलिए बाद में जाकर द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ जिसके विषय में हम बाद में पढेंगे.
आर्यों की जन्मभूमि और उनका प्रसार (साक्ष्य के साथ)
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On: सितंबर 15, 2017
आर्यों (Aryans) की जन्मभूमि कहाँ पर थी, इस विषय में इतिहास के विद्वानों में बड़ा मतभेद है. आर्य (Aryans) कहाँ से आये, वे कौन थे इसका पता ठीक से अभी तक चल नहीं पाया है. कुछ विद्वानों का मत है कि वे डैन्यूब नदी के पास ऑस्ट्रिया-हंगरी के विस्तृत मैदानों में रहते थे. कुछ लोगों का विचार है कि उनका आदिम निवास-स्थान दक्षिण रूस में था. बहुत-से विद्वान ये मत रखते थे कि आर्य (Aryans) मध्य एशिया के मैदानी भागों में रहते थे. फिर वहां से वे फैले. और कुछ लोगों का यह मानना है कि आर्य (Aryans) लोग भारत के आदिम निवासी थे और यही से वे संसार के अन्य भागों में फैले.
फिर भी, अधिकांश विद्वानों का मत है कि आर्य (Aryans) लोग मध्य एशिया के मैदानी भागों में रहते थे. उनके इधर-उधर फ़ैल जाने का कारण उनका चारागाह की तलाश करना माना जाता है. आर्य (Aryans) देखने में लम्बे-चौड़े और गोरे रंग के थे. वे घुमंतू प्रवृत्ति के होते थे. उनकी भाषा लैटिन, यूनानी आदि प्राचीन यूरोपीय भाषाओं तथा आज-कल की अंग्रेजी, फ्रांसीसी, रुसी तथा जर्मन भाषाओं से मिलती-जुलती थी. अधिकांश इतिहासकारों और विद्वानों के मत से तो यही लगता है कि यूरोप और भारत के आधुनिक निवासियों के पूर्वज एक ही स्थान में रहते थे और वह स्थान मध्य-एशिया में था.
आर्यों (Aryans) के Origin के कुछ साक्ष्य
एशिया में उनका उल्लेख सर्वप्रथम एक खुदे हुए लेख में पाया जाता है जो ई.पू. 2500 के लगभग का है. घोड़ों की सौदागिरी करने के लिए वे मध्य एशिया से एशियाई कोचक में आये. यहाँ आकर कोचक और मेसोपोटामिया को जीतकर उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया. वेवीलोनिया (जो अभी Iraq में है) के इतिहास में आर्य (Aryans) “मिटन्नी” नाम से प्रसिद्ध है. उनके राजाओं के नाम आर्यों (Aryans) के नामों से मिलते-जुलते जैसे “दुशरत्त” (दुक्षत्र) और “सुवरदत्त” (स्वर्दत्त). बोगाज-कोई (Bogl as-Koi) में पाये हुए और तेल-यल-अमर्ना (Tell-al-Amarna) के लेखों से यह सिद्ध होता है कि ये लोग भी आर्यों (Aryans) के जैसे सूर्य, वरुण, इंद्र तथा मरूत की पूजा करते थे. उनके देवताओं के “शुरियस” और “मरूत्तश ” संस्कृत के शब्द सूर्य तथा मरूत ही है. ज्ञात होता है कि ई.पू. 1500 के लगभग मेसोपोटामिया की सभ्यता को नष्ट करनेवाले लोग उन्हीं आर्य Aryans के पूर्वज थे जिन्होंने भारत के द्रविड़ों को हराया और वेदों की रचना की.
आर्यों (Aryans)की एक दूसरी शाखा भी थी जो फारस के उपजाऊ मैदानों में पाई जाती थी. उन्हें इंडो-ईरानियन कहा जाता था. पहले इन दोनों दलों के बीच कोई स्पष्ट अंतर नहीं दिखता था. जैसे वे एक ही देवताओं को पूजते थे, पूजा-पाठ का ढंग भी एक ही था. कालांतर में इरानी दल बदल गया. उनके नामों में भी जो समानता थी, वे भी धीरे-धीरे नहीं रही. ई.पू. छठी शताब्दी के पहले ही उन्होंने अपना धर्म बदल डाला और सूर्य और अग्नि के उपासक बन गए.
आर्य लोगों (Aryans) का बाहर जाना
आर्य (Aryans) लोग अपनी जन्मभूमि को छोड़कर ऐसी जगह गए जहाँ कुछ लोग पहले से निवास करते थे. ऐसी दशा में उन्हें पहले से निवास कर रहे लोगों से लड़ना पड़ा. आर्य (Aryans) लोग अपने जन्म-स्थान से कभी-भी बड़ी संख्या में नहीं निकलते थे. वे टुकड़ों में बँट के ही इधर-उधर जाते थे. पर जहाँ भी जाते थे, उनका द्वंद्व पहले से रह रहे लोगों से होता था. कहीं-कहीं जो अनार्य थे उन्होंने आर्यों (Aryans) की भाषा को तो अपनाया ही, साथ-साथ उन्हीं के देवी-देवताओं को भी पूजने लगे. पर अधिकांश जगह यही हुआ कि आर्यों (Aryans) ने उनकी जमीन और संपत्ति छीन कर उन्हें अपनी प्रजा में शामिल कर लिया. आर्यों (Aryans) के बाहर निकलने का समय ठीक तौर पर निश्चित नहीं किया जा सकता परन्तु विद्वानों का अनुमान है कि यह घटना 3000 ई.पू. से पहले की नहीं है.
गुरुवार, 14 सितंबर 2017
तीनों पानीपत युद्धों का संक्षिप्त विवरण – War of Panipat in Hindi
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On: सितंबर 14, 2017
आज इस पोस्ट में हम पानीपत की पहली, दूसरी और तीसरी लड़ाई (Panipat First, Second and Third War) की कहानी आपके सामने रखेंगे. इन युद्धों के क्या कारण थे, ये युद्ध किनके बीच हुआ और इन युद्धों के क्या परिणाम निकले, इन सब तथ्यों की चर्चा करेंगे. भारतीय इतिहास में ये तीनों युद्ध बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. पेश है आपके सामने तीनों पानीपत युद्धों का संक्षिप्त विवरण. पेश है आपके सामने पानीपत के तीनों युद्धों का संक्षिप्त विवरण Hindi में.
पानीपत की प्रथम लड़ाई – First Panipat War
पानीपत में तीन भाग्यनिर्णायक लडाईयाँ यहाँ हुई, जिन्होंने भारतीय इतिहास की धारा ही मोड़ दी. पानीपत की पहली लड़ाई -Panipat War 1 21 अप्रैल, 1526 ई. को दिल्ली के सुलतान इब्राहीम लोदी और मुग़ल आक्रमणकारी बाबर के बीच हुई. इब्राहीम के पास एक लाख संख्या तक की फ़ौज थी. उधर बाबर के पास मात्र 12,000 फ़ौज तथा बड़ी संख्या में तोपें थीं. रणविद्या, सैन्य-सञ्चालन की श्रेष्ठता और विशेषकर तोपों के नए और प्रभावशाली प्रयोग के कारण बाबर ने इब्राहीम लोदी के ऊपर निर्णयात्मक विजय प्राप्त की. लोदी ने रणभूमि में ही प्राण त्याग दिया. पानीपत की पहली लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली और आगरा पर बाबर का दखल हो गया और उससे भारत में मुग़ल राजवंश का प्रचालन हुआ.
पानीपत की दूसरी लड़ाई – Second Panipat War
पानीपत की दूसरी लड़ाई -Panipat War 2 ( 5 नवम्बर, 1556 ई. को अफगान बादशाह आदिलशाह सूर के योग्य हिन्दू सेनापति और मंत्री हेमू और अकबर के बीच हुई, जिसने अपने पिता हुमायूँ से दिल्ली का तख़्त पाया था. हेमू के पास अकबर से कहीं अधिक बड़ी सेना थी. उसके पास 1500 हाथी भी थे. प्रारम्भ में मुग़ल सेना के मुकाबले में हेमू को सफलता प्राप्त हुई परन्तु संयोगवश एक तीर हेमू के आँख में घुस गया और यह घटना युद्ध में जीत रहे हेमू के हार का कारण बन गई. तीर लगने से हेमू अचेत होकर गिर पड़ा और उसकी सेना भाग खड़ी हुई. हेमू को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे किशोर अकबर के सामने ले जाया गया. अकबर ने उसका सर धड़ से अलग कर दिया. पानीपत की दूसरी लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली और आगरा अकबर के कब्जे में आ गए. इस लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली के तख़्त के लिए मुगलों और अफगानों के बीच चलनेवाला संघर्ष अंतिम रूप से मुगलों के पक्ष में निर्णीत हो गया और अगले तीन सौ वर्षों तक दिल्ली का तख़्त मुगलों के पास रहा.
पानीपत की तीसरी लड़ाई – Third Panipat War
पानीपत की तीसरी लड़ाई -Panipat War 3 ने भारत का भाग्य निर्णय कर दिया जो उस समय अधर में लटक रहा था. पानीपत का तीसरा युद्ध 1761 ई. में हुआ. अफगान का रहने वाला अहमद अब्दाली वहाँ का नया-नया बादशाह बना था. अफगानिस्तान पर अधिकार जमाने के बाद उसने हिन्दुस्तान पर भी कई बार चढ़ाई की और दिल्ली के दरबार की निर्बलता और अमीरों के पारस्परिक वैमनस्य के कारण अहमद अब्दाली को किसी प्रकार की रुकावट का सामना नहीं करना पड़ा. पंजाब के सूबेदार की पराजय के बाद भयभीत दिल्ली-सम्राट ने पंजाब को अफगान के हवाले कर दिया. जीते हुए देश पर अपना सूबेदार नियुक्त कर अब्दाली अपने देश को लौट गया. उसकी अनुपस्थिति में मराठों ने पंजाब पर धावा बोलकर, अब्दाली के सूबेदार को बाहर कर दिया और लाहौर पर अधिकार जमा लिया. इस समाचार को सुनकर अब्दाली क्रोधित हो गया और बड़ी सेना ले कर मराठों को पराजित करने के लिए अफगानिस्तान से रवाना हुआ. मराठों ने भी एक बड़ी सेना एकत्र की, जिसका अध्यक्ष सदाशिवराव और सहायक अध्यक्ष पेशवा का बेटा विश्वासराव था. दोनों वीर अनेक मराठा सेनापतियों तथा पैदल-सेना, घोड़े, हाथी के साथ पूना से रवाना हुए. होल्कर, सिंधिया, गायकवाड़ और अन्य मराठा-सरदारों ने भी उनकी सहायता की. राजपूतों ने भी मदद भेजी और 30 हजार सिपाही लेकर भरतपुर (राजस्थान) का जाट-सरदार सूरजमल भी उनसे आ मिला. मराठा-दल में सरदारों की एक राय न होने के कारण, अब्दाली की सेना पर फ़ौरन आक्रमण न हो सका. पहले हमले में तो मराठों को विजय मिला पर विश्वासराव मारा गया. इसके बाद जो भयंकर युद्ध हुआ उसमें सदाशिवराव मारा गया. मराठों का साहस भंग हो गया. पानीपत की पराजय तथा पेशवा की मृत्यु से सारा महाराष्ट्र निराशा के अन्धकार में डूब गया और उत्तरी भारत से मराठों का प्रभुत्व उठ गया.
बुधवार, 13 सितंबर 2017
आज़ाद हिन्द फ़ौज : Indian National Army in Hindi
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On: सितंबर 13, 2017
आज इस आलेख (essay) में हम आजाद हिन्द फ़ौज की चर्चा करने वाले हैं. यह फ़ौज कितना सफल हुआ और कितना असफल, आज हम इन सब की चर्चा करेंगे. यह सेना किसके द्वारा और क्यों बनाई गई, इस article में हम सब जानेंगे. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस और जर्मनी में युद्ध छिड़ गया और सुदूर पूर्व में जापानी साम्राज्यवाद अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया. 15 फरवरी, 1942 ई. को जापानियों ने सिंगापुर पर अधिकार कर लिया. इन परिस्थतियों के बीच 28 मार्च, 1942 ई. को रास बिहारी बोस ने टोक्यो में एक सम्मलेन को आहूत किया. इसमें यह निर्णय लिया गया कि भारतीय अफसरों के अधीन एक भारतीय राष्ट्रीय सेना (Indian National Army) संगठित की जाए. 23 जून, 1942 ई. को बर्मा, मलाया, थाईलैंड, हिन्दचीन, फिलीपिन्स, जापान, चीन, हांगकांग और इंडोनेशिया के प्रतिनिधियों का एक सम्मलेन रास बिहारी की अध्यक्षता में Bangkok में सम्पन्न हुआ.
इसी दौरान जापानियों ने उत्तरी मलाया में ब्रिटेन की सेना को हरा दिया. वहाँ पहले भारतीय बटालियन के कप्तान मोहन सिंह और उनके सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा. जापानियों के सुझाव से वे भारत की स्वतंत्रता के लिए जापानियों के साथ सहयोग करने को तैयार हुए. सिंगापुर के 40,000 भारतीय युद्धबंदी मोहन सिंह को दे दिए गए. मोहन सिंह चाहते थे कि आजाद हिन्द फ़ौज की स्वतंत्र कार्रवाई के लिए उन्हें स्वतंत्र रखा जाए पर जापानी इसके लिए तैयार नहीं थे. एक बार इसी मामले को लेकर जापानियों ने मोहन सिंह को गिरफ्तार भी कर लिया था पर बाद में रिहा भी कर दिया गया था.
सुभाष चन्द्र बोस
फरवरी, 1943 ई. में सुभाष चन्द्र बोस एक जापानी पनडुब्बी के सहयोग से टोक्यो, जापान पहुँचे और उनका वहाँ भव्य स्वागत हुआ. सिंगापुर में रास बिहारी बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व बोस के हाँथो सौंप दिया. सुभाष चन्द्र बोस ने “दिल्ली चलो” का नारा दिया. उन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज को लेकर हिन्दुस्तान जाने की घोषणा की. आजाद हिन्द फ़ौज को एक अस्थायी सरकार के रूप में माना गया जिसको जापान ने मान्यता भी दे दी. 31 दिसम्बर, 1943 ई. को जापान द्वारा जीता गया अंडमान निकोबार आजाद हिन्द फ़ौज के हाथो सुपुर्द कर कर दिया गया दिया गया. अंडमान का नाम बदलकर शहीद और निकोबार का नाम बदलकर स्वराज रख दिया गया.
आजाद हिन्द फ़ौज की जीत और फिर हार
जनवरी, 1944 ई. में आजाद हिन्द फ़ौज के कुछ दस्ते रंगून (Myanmar) पहुँचे. सुभाष चन्द्र बोस ने सेना की कुछ टुकड़ी रंगून में ही रहने दी और फिर शेष सेना के साथ आगे बढ़ने का फैसला लिया. मई, 1944 ई. तक आजाद हिन्द फ़ौज के कुछ सैनिक कोहिमा (नागालैंड) तक जा पहुँचे. यहाँ मिली जीत के बाद वहाँ भारतीय तिरंगा झंडा फहराया गया. ब्रिटिश सेना आजाद हिन्द फ़ौज के इस जीत से सख्ते में थी. पर उन्होंने जोर-शोर से आजाद हिन्द फ़ौज के खिलाफ कार्रवाई की और भारी सैनिक बल के साथ हमला बोला. आजाद हिन्द फ़ौज को जरुरत के समय जापानियों का सहयोग नहीं मिला और आजाद हिन्द फ़ौज की स्थिति चरमरा गयी. इसका लाभ उठाकर 1944 ई. के बीच अंग्रेजों ने फिर से रंगून पर कब्ज़ा कर लिया.
विश्लेषण
यह जरुर है कि आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिक देश प्रेम की भावना से ओत-प्रोत थे पर वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके. इसके पीछे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थतियाँ जिम्मेदार थीं. जापान ने प्रारंभ से ही आजाद हिन्द फ़ौज को स्वतंत्र रूप से काम करने नहीं दिया. धन की कमी तो थी ही, आजाद हिंदी फ़ौज के सैनिकों के पास अच्छे हथियार भी नहीं थे. फिर भी इस फ़ौज के प्रयासों का प्रभाव पूरे देश पर पड़ा और देशप्रेम की लहर पूरे भारतवर्ष पर दौड़ पड़ी.
मंगलवार, 12 सितंबर 2017
प्रथम विश्वयुद्ध – First World War [1914-18]
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On: सितंबर 12, 2017
प्रथम विश्वयुद्ध की भूमिका (Background of First World War)
1914-18 ई. का प्रथम विश्वयुद्ध (First World War) साम्राज्यवादी राष्ट्रों की पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा का परिणाम था. प्रथम विश्वयुद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण गुप्त संधि प्रणाली थी. यूरोप में गुप्त संधि की प्रथा जर्मन चांसलर बिस्मार्क ने शुरू की थी. इसने यूरोप को दो विरोधी गुटों में विभाजित कर दिया. दो गुटों के बीच एक-दूसरे के प्रति संदेह और घृणा का भाव बढ़ता गया. राजनीतिक वातावरण दूषित हो गया. 1879 ई. में जर्मनी ने ऑस्ट्रिया-हंगरी (Austria-Hungary) के साथ गुप्त संधि की. 1882 ई. में इटली भी इस गुट में शामिल हो गया. इस प्रकार त्रिगुट का निर्माण हुआ. 1887 ई. में जर्मनी और रूस दोनों मिल गए. विश्व राजनैतिक अखाड़े में फ्रांस अकेला पड़ गया. फ्रांस को अपमानित करने के लिए ही जर्मनी ने इन देशों के साथ संधि की थी. फ्रांस प्रतिशोध की आग में अन्दर ही अन्दर जल रहा था. इसलिए 1894 ई. में फ्रांस ने रूस से संधि की. उधर इंग्लैंड ने 1902 ई. में जापान के साथ, 1904 ई. में फ्रांस और 1907 ई. में रूस के साथ संधि कर ली. इस प्रकार दो राजनीतिक खेमों में बँटा यूरोप युद्ध का अखाड़ा हो गया.
एक ओर इंग्लैंड, फ्रांस, रूस और जापान का त्रिगुट था और दूसरा गुट जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी, इटली और तुर्की का था. दोनों के बीच हथियारबंदी की होड़ चल रही थी.
1912-13 ई. के बाल्कन युद्धों (War in the Balkans) ने तो प्रथम विश्वयुद्ध को अनिवार्य बना दिया. यूरोप के अनेक राष्ट्र बाल्कन क्षेत्र में अपने साम्राज्य के विस्तार का प्रयास कर रहे थे. ऑस्ट्रिया और रूस भी इसी क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहते थे. बाल्कन क्षेत्र में साम्राज्यवादी प्रतिद्वंदिता ने विश्वयुद्ध की भूमिका तैयार की.
गुप्त संधियों के अलावे प्रथम विश्व युद्ध के अनेक कारण गिनाये जा सकते हैं –
Causes of World War I
1. उग्र राष्ट्रीयता (Furious Nationality)
उग्र राष्ट्रीयता के कारण भी प्रथम विश्वयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई थी. बड़े एवं शक्तिशाली राष्ट्रों के अतिरिक्त यूनान और सर्बिया जैसे छोटे-छोटे देशों पर भी उग्र राष्ट्रीयता का नशा चढ़ा हुआ था. वे वृहत्तर यूनान, वृहत्तर बुल्गेरिया और वृहत्तर सर्बिया की मांग कर रहे थे. चेक, स्लाव जातियाँ अपनी राष्ट्रीय आकांक्षा को पूरा करने के लिए यूरोप में अशांति उत्पन्न कर रही थीं. जब यूरोप के साम्राज्यवादी राष्ट्र अपनी सभ्यता-संस्कृति और धर्म का पाठ पढ़ाने के लिए संसार में आगे बढ़े तो उनमें संघर्ष अनिवार्य हो गया.
2. आर्थिक प्रतिद्वंदिता (Economic Rivalry)
औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) के फलस्वरूप यूरोप के राष्ट्रों के आर्थिक जीवन में महान् परिवर्तन हुआ. पूंजीवाद की उत्पत्ति हुई. पूँजीवादी अतिरिक्त पूँजी लगाने के लिए उपनिवेश की माँग करने लगे. बढ़ती हुई जनसंख्या को बसाने के लिए भी उपनिवेश की आवाश्यकता थी. इस समस्या का समाधान साम्राज्य-विस्तार से ही संभव था. इसलिए उपनिवेश को लेकर ही संघर्ष प्रारम्भ हुआ. पूँजीवादी राष्ट्रों के बीच आर्थिक महत्त्वाकांक्षा के कारण घृणा और अविश्वास का वातावरण तैयार हो गया.
3. साम्राज्यवादी होड़ (Imperialist Competition)
साम्राज्यवादी होड़ प्रथम विश्वयुद्ध का एक आधारभूत कारण था. औद्योगिक क्रान्ति के कारण यूरोपीय देशों के सामने व्यावसायिक माल की खपत और कल-कारखानों को चलाने के लिए कच्चे माल की प्राप्ति की समस्या उत्पन्न हुई. इस समस्या का समाधान साम्राज्य-विस्तार में दिखाई दिया. इसलिए इंग्लैंड, फ्रांस, हॉलैंड, बेल्जियम, पुर्तगाल, डेनमार्क, इटली अपना साम्राज्य बढ़ाने का प्रयत्न करने लगे. इससे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता बढ़ी. अफ्रीका और चीन इस प्रतिद्वंद्विता का शिकार पहले हुए. सूडान को लेकर इंग्लैंड और फ्रांस के बीच युद्ध छिड़ते-छिड़ते बचा.
4. सैन्यवाद और शस्त्रीकरण (Militarism and Armament)
उग्र राष्ट्रीयता और साम्राज्यवादी मनोवृत्ति ने यूरोप के राष्ट्रों का ध्यान सैन्यवाद और शस्त्रीकरण की ओर खींचा. फ्रांस, जर्मनी आदि साम्राज्यवादी राष्ट्र अपनी आमदनी का 85% सैनिक तैयारी पर खर्च करने लगे. भय तथा संदेह ने प्रत्येक राष्ट्र को युद्ध-सामग्री जमा करने के लिए उत्प्रेरित किया और इस तरह प्रत्येक देश युद्ध के लिए तैयार हो गया.
5. समाचारपत्रों का झूठा प्रचार (Newspapers’ False Propaganda)
प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व सभी देशों के समाचारपत्र एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे थे. इससे एक-दूसरे की राष्ट्रीय भावना को ठेस लग रही थी. कभी-कभी दो राष्ट्रों के बीच विवादास्पद प्रश्न पर समाचारपत्रों में इस तरह की आलोचना की जाती थी कि जनता पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता था.
6. फ्रांस की बदले की भावना (France’s Revenge Spirit)
जर्मनी का एकीकरण फ्रांस को पराजित कर के पूरा किया गया था. फ्रांस को अल्सस-लारेन का प्रदेश खोना पड़ा था. फ्रांस राष्ट्रीय अपमान को भूला नहीं था और वह जर्मनी से बदला लेना चाहता था. जर्मनी मोरक्को में फ्रांस का विरोध कर रहा था. इससे दोनों में मनमुटाव पैदा हुआ.
7. अंतर्राष्ट्रीय अराजकता (International Anarchy)
इस समय यूरोप में एक प्रकार से अंतर्राष्ट्रीय अराजकता फ़ैल चुकी थी. प्रत्येक राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन कर रहा था. अपने हितों की रक्षा के लिए कोई भी देश अपने विरोधी के साथ संधि कर सकता था. स्वार्थी राष्ट्र की इस नीति ने विरोधाभास को जन्म दिया. इस परिस्थिति को रोकने के लिए कोई अंतर्राष्ट्रीय संस्था नहीं थी जिसके अभाव के कारण सभी राष्ट्र मनमानी कर रहे थे.
8. सराजेवो हत्याकांड (Sarajevo Assassination)
युद्ध का तात्कालिक कारण ऑस्ट्रिया (Austria) के राजकुमार आर्कड्यूक फ्रान्ज़ (Archduke Franz) की हत्या थी. राजकुमार की हत्या बोस्निया (Bosnia) की राजधानी सराजेवो (Sarajevo) में हुई थी. ऑस्ट्रिया की सरकार ने राजकुमार की हत्या के लिए सर्बिया को उत्तरदाई ठहराया और उसके समक्ष 12 कड़ी शर्तें रखीं. सर्बिया की सरकार ने सभी शर्तों को मानने में अपनी असमर्थता प्रकट की. सर्बिया की सरकार समस्या का समाधान महाशक्तियों के सम्मलेन द्वारा करना चाहती थी. किन्तु ऑस्ट्रिया के राजनीतिज्ञों और सैनिक पदाधिकारियों ने सर्बिया की प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया. ऑस्ट्रिया की सरकार ने 28 जुलाई, 1914 ई. को युद्ध की घोषणा कर अपनी सेना को सर्बिया पर आक्रमण करने का आदेश दिया. इस घटना से ही प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई. युद्ध की समाप्ति 11 नवम्बर, 1918 को हुई.
सोमवार, 11 सितंबर 2017
[विश्व इतिहास] फ्रांस की क्रांति – 1789 French Revolution
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On: सितंबर 11, 2017
फ्रांस की क्रांति (French Revolution): भूमिका
18वीं शताब्दी के 70-80 के दशकों में विभिन्न कारणों से राजा और तत्कालीन राजव्यवस्था के प्रति फ्रांस के नागरिकों में विद्रोह की भावना पनप रही थी. यह विरोध धीरे-धीरे तीव्र होता चला गया. अंततोगत्वा 1789 में राजा लुई 16वाँ (Louis XVI) को एक सभा बुलानी पड़ी. इस सभा का नाम General State था. यह सभा कई वर्षों से बुलाई नहीं गयी थी. इसमें सामंतों के अतिरिक्त सामान्य वर्ग के भी प्रतिनिधि होते थे. इस सभा में जनता की माँगों पर जोरदार बहस हुई. स्पष्ट हो गया कि लोगों में व्यवस्था की बदलने की बैचैनी थी. इसी बैचैनी का यह परिणाम हुआ कि इस सभा के आयोजन के कुछ ही दिनों के बाद सामान्य नागरिकों का एक जुलूस बास्तिल नामक जेल पहुँच गया और उसके दरवाजे तोड़ डाले गए. सभी कैदी बाहर निकल गए. सच पूंछे तो नागरिक इस जेल को जनता के दमन का प्रतीक मानते थे. कुछ दिनों के बाद महिलाओं का एक दल राजा के वर्साय स्थित दरबार को घेरने निकल गया जिसके फलस्वरूप राजा को पेरिस चले जाना पड़ा. इसी बीच General State ने कई क्रांतिकारी कदम भी उठाना शुरू किए. यथा – मानव के अधिकारों की घोषणा, मेट्रिक प्रणाली का आरम्भ, चर्च के प्रभाव का समापन, सामंतवाद की समाप्ति की घोषणा, दास प्रथा के अंत की घोषणा आदि. General State के सदस्यों में मतभेद भी हुए. कुछ लोग क्रांति के गति को धीमी रखना चाहते थे. कुछ अन्य प्रखर क्रान्ति के पोषक थे. इन लोगों में आपसी झगड़े भी होने लगे पर इनका नेतृत्व कट्टर क्रांतिकारियों के हाथ में रहा. बाद में इनके एक नेता Maximilian Robespierre हुआ जिसने हज़ारों को मौत के घाट उतार दिया. उसके एक वर्ष के नेतृत्व को आज भी आतंक का राज (Reign of terror) कहते हैं. इसकी परिणति स्वयं Louis 16th और उसकी रानी की हत्या से हुई. राजपरिवार के हत्या के पश्चात् यूरोप के अन्य राजाओं में क्रोध उत्पन्न हुआ और वे लोग संयुक्त सेना बना-बना कर क्रांतिकारियों के विरुद्ध लड़ने लगे. क्रांतिकारियों ने भी एक सेना बना ली जिसमें सामान्य वर्ग के लोग भी सम्मिलित हुए. क्रान्ति के नए-नए उत्साह के कारण क्रांतिकारियों की सेना बार-बार सफल हुई और उसका उत्साह बढ़ता चला गया. यह सेना फ्रांस के बाहर भी भूमि जीतने लगी. इसी बीच इस सेना का एक सेनापति जिसका नाम नेपोलियन बोनापार्ट था, अपनी विजयों के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ. इधर फ्रांस के अन्दर कट्टर क्रांति से लोग ऊब चुके थे. इसका लाभ उठाते हुए और अपनी लोकप्रियता को भुनाते हुए नेपोलियन ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया और एक Consulate बना कर शासन चालने लगा. यह शासन क्रांतिकारी सिद्धांतों पर चलता रहा. अंततः नेपोलियन ने सम्राट की उपाधि अपने आप को प्रदान की और इस प्रकार फ्रांसमें राजतंत्र दुबारा लौट आया. इस प्रकार हम कह सकते हैं फ्रांस की क्रांति (French Revolution) अपनी चरम अवस्था में थी.
1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति (French Revolution) आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी. यह क्रांति (French Revolution) निरंकुश राजतंत्र, सामंती शोषण, वर्गीय विशेषाधिकार तथा प्रजा की भलाई के प्रति शासकों की उदासीनता के विरुद्ध प्रारंभ हुई थी. उस समय फ्रांस में न केवल शोषित और असंतुष्ट वर्ग की विद्दमान थे, बल्कि वहाँ के आर्थिक और राजनैतिक ढाँचा में भी विरोधाभास देखा जा सकता था. राजनैतिक शक्ति का केन्द्रीकरण हो चुका था. सम्पूर्ण देश की धुरी एकमात्र राज्य था. समाज का नेतृत्व शनैः शनैः बुद्धिजीवी वर्ग के हाथ में आ रहा था. राजा शासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था. राजा की इच्छाएँ ही राज्य का कानून था. लोगों को किसी प्रकार का नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं था. राजा के अन्यायों और अत्याचारों से आम जनता परेशान थी. भाषण, लेखन और प्रकाशन पर कड़ा प्रतिबंध लगा हुआ था. लोगों को धार्मिक स्वंतत्रता भी नहीं दी गयी थी. राष्ट्र की सम्पूर्ण आय पर राजा का निजी अधिकार था. सम्पूर्ण आमदनी राजा-रानी और दरबारियों के भोग-विलास तथा आमोद-प्रमोद पर खर्च हो जाता था. राज्य के उच्च पदों पर राजा के कृपापात्रों की नियुक्ति होती थी. स्थानीय स्वशासन का अभाव था. फ्रांसीसी समाज दो टुकड़ों में बँट कर रह गया था – एक सुविधा-प्राप्त वर्ग और दूसरा सुविधाहीन वर्ग.
फ्रांस की क्रांति (French Revolution) का प्रभाव विश्वव्यापी हुआ. इसके फलस्वरूप निरंकुश शासन तथा सामंती व्यवस्था का अंत हुआ. प्रजातंत्रात्मक शासन-प्रणाली की नींव डाली गई. सामजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण सुधार लाये गए.
राजनैतिक कारण
i) निरंकुश राजतंत्र
राजतंत्र की निरंकुशता फ्रांसीसी क्रांति (French Revolution) का एक प्रमुख कारण था. राजा शासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था. वह अपनी इच्छानुसार काम करता था. वह अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि बतलाता था. राजा के कार्यों के आलोचकों को बिना कारण बताए जेल में डाल दिया जाता था. राजा के अन्यायों और अत्याचारों से आम जनता तबाह थी. वह निरंकुश से छुटकारा पाने के लिए कोशिश करने लगी.
ii) स्वतंत्रताओं का अभाव
फ्रान्स में शासन का अति केन्द्रीकरण था. शासन के सभी सूत्र राजा के हाथों में थे. भाषण, लेखन और प्रकाशन पर कड़ा प्रतिबंध लगा हुआ था. राजनैतिक स्वतंत्रता का पूर्ण अभाव था. लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता भी नहीं थी. बंदी प्रत्यक्षीकरण नियम की व्यवस्था नहीं थी. न्याय और स्वतंत्रता की इस नग्न अवहेलना के कारण लोगों का रोष धीरे-धीरे क्रांति का रूप ले रहा था.
iii) राजप्रसाद का विलासी जीवन और धन का अपव्यय
राष्ट्र की सम्पूर्ण आय पर राजा का निजी अधिकार था. सम्पूर्ण आमदनी राजा-रानी और दरबारियों के भोग-विलास तथा आमोद-प्रमोद पर खर्च हुआ होता था. रानी बहुमूल्य वस्तुएँ खरीदने में अपार धन खर्च करती थी. एक ओर किसानों, श्रमिकों को भरपेट भोजन नहीं मिलता था तो दूसरी ओर सामंत, कुलीन और राजपरिवार के सदस्य विलासिता का जीवन बिताते थे.
iv) प्रशासनिक अव्यवस्था
फ्रान्स का शासन बेढंगा और अव्यवस्थित था. सरकारी पदों पर नियुक्ति योग्यता के आधार पर नहीं होती थी. राजा के कृपापात्रों की नियुक्ति राज्य के उच्च पदों पर होती थी. भिन्न-भिन्न प्रान्तों में अलग-अलग कानून थे. कानून की विविधता के चलते स्वच्छ न्याय की आशा करना बेकार था.
सामजिक कारण
i) पादरी वर्ग
फ्रांसमें रोमन कैथोलिक चर्च की प्रधानता थी. चर्च एक स्वतंत्र संस्था के रूप में काम कर रहा था. इसका अपना अलग संगठन था, अपना न्यायालय था और धन प्राप्ति का स्रोत था. देश की भूमि का पाँचवा भाग चर्च के पास था. चर्च की वार्षिक आमदनी करीब तीस करोड़ रुपये थी. चर्च स्वयं करमुक्त था, लेकिन उसे लोगों पर कर लगाने का विशेष अधिकार प्राप्त था. चर्च की अपार संपत्ति से बड़े-बड़े पादरी भोग-विलास का जीवन बिताते थे. धर्म के कार्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं था. वे पूर्णतया सांसारिक जीवन व्यतीत करते थे.
ii) कुलीन वर्ग
फ्रांसका कुलीन वर्ग सुविधायुक्त एवं सम्पन्न वर्ग था. कुलीनों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे. वे राजकीय कर से मुक्त थे. राज्य, धर्म और सेना के उच्च पदों पर कुलीनों की नियुक्ति होती थी. वे किसानों से कर वसूल करते थे. वे वर्साय के राजमहल में जमे रहते और राजा को अपने प्रभाव में बनाए रखने की पूरी कोशिश करते थे. कुलीनों के विशेषाधिकार और उत्पीड़न ने साधारण लोगों को क्रांतिकारी बनाया था.
iii) कृषक वर्ग
किसानों का वर्ग सबसे अधिक शोषित और पीड़ित था. उन्हें कर का बोझ उठाना पड़ता था. उन्हें राज्य, चर्च और जमींदारों को अनेक प्रकार के कर देने पड़ते थे. कृषक वर्ग अपनी दशा में सुधार लान चाहते थे और यह सुधार सिर्फ एक क्रांति द्वारा ही आ सकती थी.
iv) मजदूर वर्ग
मजदूरों और कारीगरों की दशा अत्यंत दयनीय थी. औद्योगिक क्रान्ति के कारण घरेलू उद्योग-धंधों का विनाश हो चुका था और मजदूर वर्ग बेरोजगार हो गए थे. देहात के मजदूर रोजगार की तलाश में पेरिस भाग रहे थे. क्रांति के समय (French Revolution) मजदूर वर्ग का एक बड़ा गिरोह तैयार हो चुका था.
v) मध्यम वर्ग
माध्यम वर्ग के लोग सामजिक असमानता को समाप्त करना चाहते थे. चूँकि तत्कालीन शासन के प्रति सबसे अधिक असंतोष मध्यम वर्ग में था, इसलिए क्रांति (French Revolution) का संचालन और नेतृत्व इसी वर्ग ने किया.
आर्थिक कारण
विदेशी युद्ध और राजमहल के अपव्यय के कारण फ्रांस की आर्थिक स्थिति लचर हो गयी थी. आय से अधिक व्यय हो चुका था. खर्च पूरा करने के लिए सरकार को कर्ज लेना पड़ रहा था. कर की असंतोषजनक व्यवस्था के साथ-साथ शासकों की फिजूलखर्ची से फ्रांसकी हालत और भी ख़राब हो गई थी.
बौधिक जागरण
विचारकों और दार्शनिकों ने फ्रांसकी राजनैतिक एवं सामाजिक बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया और तत्कालीन व्यवस्था के प्रति असंतोष, घृणा और विद्रोह की भावना को उभरा. Montesquieu, Voltaire, Jean-Jacques Rousseau के विचारों से मध्यम वर्ग सबसे अधिक प्रभावित था. Montesquieu ने समाज और शासन-व्यवस्था की प्रसंशा Power-Separation Theory का प्रतिपादन किया. वाल्टेयर ने सामाजिक एवं धार्मिक कुप्रथाओं पर प्रहार किया. रूसो ने राजतंत्र का विरोध किया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बल दिया. उसने जनता की सार्वभौमिकता के सिद्धांत (Principles of Rational and Just Civic Association) का प्रतिपादन किया. इन लेखकों ने लोगों को मानसिक रूप से क्रान्ति के लिए तैयार किया.
सैनिकों में असंतोष
फ्रांस की सेना भी तत्कालीन शासन-व्यवस्था से असंतुष्ट थी. सेना में असंतोष फैलते ही शासन का पतन अवश्यम्भावी हो जाता है. सैनिकों को समय पर वेतन नहीं मिलता था. उनके खाने-पीने तथा रहने की उचित व्यवस्था नहीं थी. उन्हें युद्ध के समय पुराने अस्त्र-शस्त्र दिए जाते थे. ऐसी स्थिति में सेना में रोष का उत्पन्न होना स्वाभाविक था.
फ्रांसीसी क्रांति के परिणाम
निरंकुश शासन का अंत कर प्रजातंत्रात्मक शासन-प्रणाली की नींव डाली गई. प्रशासन के साथ-साथ सामजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए. फ्रांस की क्रांति (French Revolution) ने निरंकुश शासन का अंत कर लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया. क्रांति के पूर्व फ्रांसऔर अन्य यूरोपीय देशों के शासक निरंकुश थे. उनपर किसी प्रकार का वैधानिक अंकुश नहीं था. क्रांति ने राजा के विशेषाधिकारों और दैवी अधिकार सिद्धांत पर आघात किया. इस क्रांति के फलस्वरूप सामंती प्रथा (Feudal System) का अंत हो गया. कुलीनों के विदेषाधिकार समाप्त कर दिए गए. किसानों को सामंती कर से मुक्त कर दिया गया. कुलीनों और पादरियों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गये. लोगों को भाषण-लेखन तथा विचार-अभीव्यक्ति का अधिकार दिया गया. फ्रांस की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कर-प्रणाली (tax system) में सुधार लाया गया. कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका को एक-दूसरे से पृथक् कर दिया गया. अब राजा को संसद के परामर्श से काम करना पड़ता था. न्याय को सुलभ बनाने के लिए न्यायालय का पुनर्गठन किया गया. सरकार के द्वारा सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था की गई. फ्रांसमें एक एक प्रकार की शासन-व्यवस्था स्थापित की गई, एक प्रकार के आर्थिक नियम बने और नाप-तौल की नयी व्यवस्था चालू की गई. लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता मिली. उन्हें किसी भी धर्म के पालन और प्रचार का अधिकार मिला. पादरियों को संविधान के प्रति वफादारी की शपथ लेनी पड़ती थी. French Revolution ने लोगों को विश्वास दिलाया कि राजा एक अनुबंध के अंतर्गत प्रजा के प्रति उत्तरदायी है. यदि राजा अनुबंध को भंग करता है तो प्रजा का अधिकार है कि वह राजा को पदच्युत कर दे. यूरोप के अनेक देशों में निरंकुश राजतंत्र को समाप्त कर प्रजातंत्र की स्थापना की गयी.
रविवार, 10 सितंबर 2017
वेदों के विषय में संक्षिप्त विवरण – Vedas in Hindi
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On: सितंबर 10, 2017
वेद सनातन धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं. यहीं नहीं, ये विश्व के सबसे पुरानी कृतियाँ हैं. इन्हें संसार का आदिग्रंथ कहा जा सकता है. इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, मैं आपको बताना चाहूँगा कि वेद शब्द का अर्थ “ज्ञान” होता है. मूलतः वेद एक ही था. कालांतर में व्यास के द्वारा चार भागों में बाँटा गया. ये भाग अर्थात् संहिताएँ हैं – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद (Rigveda, Samveda, Yajurveda and Atharvaveda – four vedas). इनके प्रधान विषय क्रमशः प्राथना-मन्त्र, ऋचा-गायन, यज्ञ-मन्त्र और औषधीय ज्ञान हैं. वेदों का काल निश्चित नहीं है. इन्हें अपौरुषेय बताया गया है अर्थात् ये मानव रचित नहीं हैं, ऐसा माना जाता है. परन्तु कई ऋचाओं के रचनाकार ऋषियों के नाम ऋचाओं में मिलते हैं. इनमें पुरुष और स्त्रियाँ दोनों सम्मिलित हैं. अतः वेदों के रचनाकार का निर्धारण एक कठिन कार्य है. कुछ लोग इन्हें ईशा के 6000 वर्ष पूर्व के मानते हैं और कुछ इनका रचनाकाल 1500 ई.पू. बतलाते हैं. प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् तथा उपवेद (Brahman, Aranyak, Upnishada and Upveda) हैं. इनका वर्णन नीचे द्रष्टव्य है –
ऋग्वेद (Rig Veda)
चार वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन है. ऋग्वेद शब्द ऋक् (ऋचा अथवा मन्त्र) तथा वेद (विद् अर्थात् ज्ञान) से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है ज्ञान के सूक्त. ऋग्वेद (Rig veda)की संहिता (text) में 10 मंडल, 1028 सूक्त और 10, 580 ऋचाएँ हैं. ऋग्वेद के अनेक मन्त्र यज्ञ से सम्बंधित हैं परन्तु उसमें कुछ ऐसे मन्त्र भी मिलते हैं जिन्हें आदिकालीन धार्मिक कविता का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है. ऋग्वेद (Rig veda) का रचनाकाल चाहे जो भी निर्धारित हो, इतना निश्चयपूर्ण कहा जा सकता है कि ऋग्वेद में भारतीय आर्यों के प्राचीनतम युग का इतिहास और उस युग की धार्मिक, सामजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है.
i) ब्राह्मण – ऐतरेय ब्राह्मण और कौशीतकी ब्राह्मण
ii) आरण्यक – ऐतरेय आरण्यक, कौशीतकी
iii) उपनिषद् – ऐतरेय उपनिषद्
iv) उपवेद – आयुर्वेद
सामवेद (Samveda)
इस वेद में कुल 1549 ऋचाएँ हैं जिनमें से 75 को छोड़कर सभी ऋग्वेद संहिता (Rigved Samhita) से ली गई हैं. सामवेद (Samveda) की ऋचाओं का गान विविध वैदिक यज्ञों के अवसर पर होता था. सामवेद (Samveda) को संगीत-शास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है.
i) ब्राह्मण:- पंचविश ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण और सद्विंश ब्राह्मण
ii) आरण्यक:- तवलकर, छान्दोग्य
iii) उपनिषद्:- छान्दोग्य, जैमिनीय और केन उपनिषद्
iv) उपवेद:- गन्धर्ववेद
यजुर्वेद (Yajurveda)
यजुर्वेद (Yajurveda) की दो शाखाएँ हैं – कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद. कृष्ण यजुर्वेद दक्षिण भारत और शुक्ल यजुर्वेद उत्तर भारत में प्रचलित है. यजुर्वेद (Yajurveda) में 18 काण्ड हैं. यजुर्वेद में 3988 मन्त्र हैं. गायत्री मन्त्र और महामृत्युंजय मन्त्र यजुर्वेद में ही हैं. यजुर्वेद (Yajurveda) का प्रधान विषय यज्ञ कार्य है.
i) ब्राह्मण – तैत्तिरीय ब्राह्मण
ii) आरण्यक – वृहदारण्यक, तैत्तिरीय और मैत्रायणी
iii) उपनिषद् – मुण्डक उपनिषद्, ईशावास्योपनिषद्, माण्डुक्य उपनिषद् और प्रश्न उपनिषद्
iv) उपवेद:- धनुर्वेद
अथर्ववेद (Atharva Veda )
अथर्वेद में 20 अध्याय और 5687 मन्त्र हैं. अथर्ववेद (Atharvaveda) के 8 खंड हैं. अथर्वेद गद्य-पद्य-मिश्रित है. इसमें औषाधियों, जादू-टोनों आदि विषय हैं. कुछ विद्वानों के अनुसार इस वेद के कई अंश ऋग्वेद (Rig veda) से प्राचीनतर हैं.
i) ब्राह्मण – गोपथ ब्राह्मण
ii) आरण्यक – इसका कोई स्वतंत्र आरण्यक नहीं है. यजुर्वेद के आरण्यक के कुछ अंश अथर्ववेद (Atharvaveda) के आरण्यक के रूप में जाने जाते हैं.
iii) उपनिषद् – इसका कोई स्वतंत्र उपनिषद् भी नहीं है. यजुर्वेद (Yajurveda) के उपनिषद् के कुछ अंश अथर्ववेद (Atharvaveda) के उपनिषद् के रूप में जाने जाते हैं.
iv) उपवेद:- स्थापत्यवेद
शनिवार, 9 सितंबर 2017
ऐसे सेनापति जिन्होंने एक भी जंग नही हारी।
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On: सितंबर 09, 2017
पेशवा बाजीराव प्रथम हिंदुस्तान में मराठा साम्राज्य का एक महान सेनापति था. उसने साल 1720 से लेकर अपनी मौत तक चौथे मराठा छत्रपति साहू के पेशवा (प्रधानमंत्री) के रूप में सेवा की. उन्होंने कभी एक जंग भी नहीं हारी अपने सैन्यकाल में. उनके शौर्य को सदैव जीवित रखने के लिए हम उसकी जीवनी आपको बताते हैं-
अपनी सेना को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया:
इतिहासकार बाजीराव पेशवा का पूरा नाम बाजीराव बल्लाल आयर थोराले बाजीराव भी बताते हैं. बाजीराव ने अपने सैन्य काल में मराठा साम्राज्य को चरम सीमा तक पहुंचाया था जो उसकी मौत के 20 साल बाद भी उसके पुत्र के शासन में बना रहा.
कभी एक जंग भी नहीं हारे पेशवा:
अपने 20 साल के छोटे सैन्यवृति में बाजीराव ने एक भी जंग नही हारी. एक अंग्रेज अफसर ने तो बाजीराव को हिंदुस्तान का सबसे बेहतरीन घुड़सवार सेना का सेनापति बताया है. वैसे बाजीराव मस्तानी फिल्म के जरिए बाजीराव के शौर्य के बारे में आपको काफी जानकारी मिली होगी.
जीवन परिचय:
बाजीराव का जन्म कोकनष्ठ चितपावन ब्राह्मण वंश के भट्ट परिवार में 18 अगस्त 1700 ईसवी को हुआ था. उसके पिता बालाजी विश्वनाथ, छत्रपति साहू के प्रथम पेशवा थे और मां का नाम राधाबाई था. बाजीराव के छोटे भाई का नाम चिमाजी अप्पा था. बाजीराव बचपन में ही अपने पिता के सैन्य अभियानों में उनके साथ जाते थे. जब साल 1720 में बाजीराव के पिता विश्वनाथ की मौत हो गई तब छत्रपति साहू ने 20 वर्षीय बाजीराव को पेशवा नियुक्त कर दिया. उसने हिन्दू साम्राज्य का भारत में प्रसार किया था.
मराठा साम्राज्य को पूरे देश में फैलाना चाहता था:
बाजीराव दिल्ली की दीवारों पर मराठा ध्वज लहराना चाहता था और मुगल साम्राज्य को समाप्त कर हिन्दू-पत-पदशाही साम्राज्य स्थापित करना चाहता था. कम उम्र में ही मिला पेशवा का पद मिलने के बाद निजामों के खिलाफ अभियान चलाया था. ऐसे ही और भी अभियान जैसे मालवा विजयी अभियान, बुंदेलखंड अभियान, गुजरात अभियान चलाया.
मात्र 39 साल की आयु में मृत्यु:
28 अप्रैल साल 1740 को अचानक बीमार हो जाने या शायद दिल का दौरा पड़ने से 39 वर्ष की उम्र में बाजीराव की मृत्यु हो गई. उस समय बाजीराव अपनी एक लाख सैनिकों की सेना के साथ इंदौर शहर के निकट खारगोन जिले में अपने कैंप में थे. बाजीराव का नर्मदा नदी के तट पर रावरखेड़ी नामक स्थान पर दाह संस्कार किया गया और इसी स्थान पर उनकी याद में एक छतरी का निर्माण भी किया गया.
अपनी सेना को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया:
इतिहासकार बाजीराव पेशवा का पूरा नाम बाजीराव बल्लाल आयर थोराले बाजीराव भी बताते हैं. बाजीराव ने अपने सैन्य काल में मराठा साम्राज्य को चरम सीमा तक पहुंचाया था जो उसकी मौत के 20 साल बाद भी उसके पुत्र के शासन में बना रहा.
कभी एक जंग भी नहीं हारे पेशवा:
अपने 20 साल के छोटे सैन्यवृति में बाजीराव ने एक भी जंग नही हारी. एक अंग्रेज अफसर ने तो बाजीराव को हिंदुस्तान का सबसे बेहतरीन घुड़सवार सेना का सेनापति बताया है. वैसे बाजीराव मस्तानी फिल्म के जरिए बाजीराव के शौर्य के बारे में आपको काफी जानकारी मिली होगी.
जीवन परिचय:
बाजीराव का जन्म कोकनष्ठ चितपावन ब्राह्मण वंश के भट्ट परिवार में 18 अगस्त 1700 ईसवी को हुआ था. उसके पिता बालाजी विश्वनाथ, छत्रपति साहू के प्रथम पेशवा थे और मां का नाम राधाबाई था. बाजीराव के छोटे भाई का नाम चिमाजी अप्पा था. बाजीराव बचपन में ही अपने पिता के सैन्य अभियानों में उनके साथ जाते थे. जब साल 1720 में बाजीराव के पिता विश्वनाथ की मौत हो गई तब छत्रपति साहू ने 20 वर्षीय बाजीराव को पेशवा नियुक्त कर दिया. उसने हिन्दू साम्राज्य का भारत में प्रसार किया था.
मराठा साम्राज्य को पूरे देश में फैलाना चाहता था:
बाजीराव दिल्ली की दीवारों पर मराठा ध्वज लहराना चाहता था और मुगल साम्राज्य को समाप्त कर हिन्दू-पत-पदशाही साम्राज्य स्थापित करना चाहता था. कम उम्र में ही मिला पेशवा का पद मिलने के बाद निजामों के खिलाफ अभियान चलाया था. ऐसे ही और भी अभियान जैसे मालवा विजयी अभियान, बुंदेलखंड अभियान, गुजरात अभियान चलाया.
मात्र 39 साल की आयु में मृत्यु:
28 अप्रैल साल 1740 को अचानक बीमार हो जाने या शायद दिल का दौरा पड़ने से 39 वर्ष की उम्र में बाजीराव की मृत्यु हो गई. उस समय बाजीराव अपनी एक लाख सैनिकों की सेना के साथ इंदौर शहर के निकट खारगोन जिले में अपने कैंप में थे. बाजीराव का नर्मदा नदी के तट पर रावरखेड़ी नामक स्थान पर दाह संस्कार किया गया और इसी स्थान पर उनकी याद में एक छतरी का निर्माण भी किया गया.
शुक्रवार, 8 सितंबर 2017
सम्राट अशोक के विषय में व्यापक जानकारी, कलिंग आक्रमण और शिलालेख
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On: सितंबर 08, 2017
अशोक (लगभग 273-232 ई.पू.) मौर्य वंश का तीसरा सम्राट था. मौर्य वंश के संस्थापक उसके पितामह चन्द्र गुप्त मौर्य (लगभग 322-298 ई.पू.) थे. चन्द्रगुप्त मौर्य के बाद उसका पिता बिन्दुसार (लगभग 298 ई.पू.-273 ई.पू.) गद्दी पर बैठा था. सिंहली इतिहास में सुरक्षित जनश्रुतियों के अनुसार अशोक अपने पिता बिन्दुसार के अनेक पुत्रों में से एक था और जिस समय बिन्दुसार की मृत्यु हुई उस समय अशोक मालवा में उज्जैन में राजप्रतिनिधि था. कुछ इतिहासकार कहते हैं कि राजपद के उत्तराधिकार के लिए भयंकर भ्रातृयुद्ध हुआ जिसमें उसके 99 भाई मारे गए और अशोक गद्दी पर बैठा. वैसे अशोक के शिलालेखों में इस भ्रातृयुद्ध का कोई संकेत नहीं मिलता है. इसके विपरीत शिलालेख संख्या 5 से प्रकट होता है कि अशोक अपने भाई-बहनों, परिवार के प्रति शुभचिंतक था. गद्दी पर बैठने के चार वर्ष बाद तक उसका राज्यभिषेक नहीं हुआ. इसे इस बात का प्रमाण माना जाता है कि उसको राजा बनाने के प्रश्न पर कुछ विरोध हुआ होगा.
अशोक सीरिया के राजा Antiochus II (261-246 ई.पू.) और कुछ अन्य यवन (यूनानी) राजाओं का समसामयिक था जिनका उल्लेख शिलालेख संख्या 8 में है. इससे पता चलता है कि अशोक ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में राज किया किन्तु उसके राज्याभिषेक की सही समय का पता नहीं चलता है. उसने 40 वर्ष राज्य किया. इसलिए शायद राज्याभिषेक के समय वह युवक ही रहा होगा.
अशोक का पूरा नाम अशोकवर्धन था. उसके लेखों में उसे सदैव “देवानामपिय” (देवताओं का प्रिय) और “पियदर्शिन्” (प्रियदर्शी) संबोधित किया गया है. केवल यास्की के लघु शिलालेख में उसको “देवानाम्-पिय अशोक” लिखा गया है.
कलिंग पर आक्रमण
अशोक के राज्यकाल के प्रारंभिक 12 वर्षों का कोई सुनिश्चित विवरण उपलब्ध नहीं है. इस काल में अपने पूर्ववर्ती राजाओं की तरह वह भी सामाजिक कार्यक्रमों, शिकार, मांस भोजन और यात्राओं में प्रवृत्त रहता था. किन्तु उसके राज्यकाल के 13वें वर्ष में उसके जीवन में एक बड़ा बदलाव आ गया. इस वर्ष राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद, उसने बंगाल की खाड़ी के तटवर्ती राज्य कलिंग पर आक्रमण किया. कलिंग राज्य उस समय महानदी और गोदावरी के बीच क्षेत्र में विस्तृत था. इस युद्ध के कारण का पता नहीं चलता है, लेकिन उसने कलिंग को विजय करके उसे अपने राज्य में मिला लिया. इस युद्ध में भयंकर रक्तपात हुआ. एक लाख व्यक्ति मारे गए और डेढ़ लाख बंदी बना लिए गए तथा कई लाख व्यक्ति युद्ध के आनेवाली अकाल, महामारी आदि विभीषिकाओं से नष्ट हो गए. अशोक को लाखों मनुष्यों के इस विनाश और उत्पीड़न से बहुत पश्चाताप हुआ और वह युद्ध से घृणा करने लगा. इसके बाद ही अशोक अपने शिलालेखों के अनुसार “धम्म” (धर्म) में प्रवृत्त हुआ. यहाँ धम्म का आशय बौद्ध धर्म लिया जाता है और वह शीघ्र ही बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया. बौद्ध मतावलंबी होने के बाद अशोक का व्यक्तित्व एक दम बदल गया.
आठवें शिलालेख में जो संभवतः कलिंग विजय के चार वर्ष बाद तैयार किया गया था, अशोक ने घोषणा की – “कलिंग देश में जितने आदमी मारे गए, मरे या कैद हुए उसके सौवें या हजारवें हिस्से का नाश भी अब देवताओं के प्रिय को बड़े दुःख का, कारण होगा”. उसने यह भी घोषणा की कि “(आप) विश्वास रखें कि जहाँ तक क्षमा का व्यवहार हो सकता हैं, वहां तक राजा हम लोगों के साथ क्षमा का बर्ताव करेगा.”
बौद्ध धर्म का रुख
कलिंग-विजय के बाद अशोक व्यक्तिगत रूप से बौद्ध मतावलंबी हो गया था. यह बात इससे सिद्ध होती है कि उसने अपने को यास्की के लघु शिलालेख संख्या 1 में बौद्ध-शाक्य बतलाया है और भाब्रू के शिलालेख में तीन रत्नों (बुद्ध, धर्म और संघ) में अपनी आस्था व्यक्त की है. सारनाथ के शिलालेख से स्पष्ट है कि उसने केवल बौद्ध तीर्थस्थलों की यात्राएँ कीं और बौद्ध भिक्षु संघ की एकता बनाए रखने का प्रयत्न किया. इससे भी यही प्रकट होता है कि वह बौद्ध मतावलंबी था.
गुरु नानक देव जी मक्काजाने से जुड़ी कहानी।
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On: सितंबर 08, 2017
गुरु नानक जी के दो चेले थे एक का नाम था बाला और एक का नाम था मरदाना एक हिंदू और एक मुस्लिम। एक बार मरदाना ने गुरु जी से कहा कि मैं मक्का जाना चाहता हूं क्योंकि मुसलमान एक सच्चा मुसलमान तब तक नहीं कहलाता जब तक वह मक्का ना जाए । यह बात सुनकर गुरुजी उन्हें मक्का लेकर गए । मक्का पहुंचते-पहुंचते गुरूजी बहुत थक गए थे और वहां हाजियों के लिए बने आरामगाह में मक्का की तरफ पैर करके लेट गए।
आरामगाह में हाजियों की सेवा करने वाला खातिम जिसका नाम जियोन था वह यह देखकर बहुत गुस्सा हुआ और गुरु जी से बोला कि तुम कैसा आदमी है तुमको दिखता नहीं है कि वहां पर मक्का मदीना है और तुम उस तरफ पैर करके लेटे हो । तब गुरु जी बोले गुस्सा मत करो मैं बहुत थका हुआ हूं मुझे आराम चाहिए। मैं भी तुम्हारी तरह खुदा को मानता हूं तभी तो मैं यहां आया हूं मुझे नहीं पता कि खुदा का घर कहां है पर तुम्हें तो पता है तो तुम ही मेरे पांव उस तरफ कर दो।
परंतु जैसे ही वह गुरु जी का पांव दूसरी तरफ करता है मक्का भी उसी और चला जाता है। यह देखकर जीयोन को समझ आ जाता है कि यह शख्स कोई आम आदमी नहीं है खुदा का बंदा है और जीयोन तुरंत ही गुरु जी से माफी मांग लेता है। गुरुजी उसे कहते हैं ऐ खुदा के बंदे खुदा दिशाओं में वास नहीं करते वह तो दिलों में राज करते हैं। अच्छे कर्म करो और खुदा को दिल में रखो यही खुदा का सच्चा सदका है।
गुरुवार, 7 सितंबर 2017
श्रीलंका की 10 रोचक बाते आपको हैरान कर देगी
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On: सितंबर 07, 2017
श्रीलंका अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए जाना जाता है और यहां पर पर्यटकों का जमावाड़ा लगा रहता है. यहां घूमने के कई मशहूर ठिकाने हैं लेकिन यहां पर मौजूद कुछ खास जगहों का सौंदर्य देखकर आपकी आंखें खुली की खुली रह जाएंगी. लंका आज भी भारत के लिए हिंद महासागर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण राष्ट्र है.श्रीलंका भारतीय इतिहास के सबसे प्राचीनतम ग्रंथों में शामिल रहा है. भगवान राम की श्रीलंका विजय को आज भी हर बच्चा जानता है.तो आज हम आपको श्रीलंका के कुछ ऐसे रहस्यों के बारे में बताने जा रहे है जो आपको मालूम नहीं है
श्रीलंका सन् 1972 तक सिलोन नाम से जाना जाता रहा. अब भी कई जगहों पर श्रीलंका को सिलोन नाम से ही जाना जाता है. सिलोन श्रीलंका की सदियों पुरानी पहचान है.
श्रीलंका की पहली राजधानी अनुराधापुरा थी. उस समय श्रीलंका अनुराधापुरा साम्राज्य के तौर पर जाना जाता था. भगवान बुद्ध की अनुराधापुरा यात्रा के बाद यहां बौद्ध धर्म का तेजी से प्रसार हुआ.
बाद में अनुराधापुरा की राजधानी पोलोन्नारुआ में स्थानांतरित कर दी गई. इसके 150 सालों बाद अनुराधापुरा 5 खंडों में अलग-अलग राज्यों के तौर पर विभाजित हो गया.
श्रीलंका में सबसे पहले पुर्तगालियों ने व्यापार प्रारंभ किया, तब कोलंबो व्यापार का मुख्य केंद्र हुआ करता था. बाद में श्रीलंका की राजधानी कैंडी स्थानांतरित कर दी गई. कैंडी श्रीलंका के बीचों-बीचो पहाड़ी पर बसा हुआ है.
श्रीलंका में सबसे ऊंचा स्थान पेड्रो की पहाड़ियां हैं. इस स्थान तक कोई भी नहीं पहुंच सकता, क्योंकि ये पहाड़ी सेना के कब्जे में है और आम लोगों को यहां पहुंचने की मनाही है.
श्रीलंका की दो आधिकारिक भाषाएं हैं. सिंहली और तमिल. यहां अर्धराष्ट्रपति प्रशासन के तहत राज होता है.
श्रीलंका के पास 13640 किलोमीटर लंबा समुद्री तट है. श्रीलंका चारो तरफ से समंदर से घिरा है. श्रीलंका सन 2004 में आई सुनामी से पूरी तरह से बर्बाद हो गया था.
श्रीलंका पूरी दुनिया में चाय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्यातक है। क्या आप जानते हैं कि चाय के बारे में दुनिया को 1867 में पता चला? चाय से पहले श्रीलंका अपनी कॉफी के लिए सुप्रसिद्ध था, लेकिन 1870 के दशक में कॉफी के बागानों के बर्बाद होने की वजह से कॉफी उद्योग बर्बाद हो गया.
श्रीलंका को आजादी सन् 1948 में मिली थी। भारत की आजादी के 1 साल बाद ही श्रीलंका ने ब्रिटेन से आजादी छीन ली थी. इसी साल आयरलैंड और इजरायल भी दुनिया के नक्शे पर आए थे.
श्रीलंका में करीब 20 हजार हाथी अब भी जिंदा बचे हैं. ये किसी भी देश के मुकाबले सर्वाधिक हैं. श्रीलंका में हाथियों के गोबर से कागज बनाया जाता है.
श्रीलंका सन् 1972 तक सिलोन नाम से जाना जाता रहा. अब भी कई जगहों पर श्रीलंका को सिलोन नाम से ही जाना जाता है. सिलोन श्रीलंका की सदियों पुरानी पहचान है.
श्रीलंका की पहली राजधानी अनुराधापुरा थी. उस समय श्रीलंका अनुराधापुरा साम्राज्य के तौर पर जाना जाता था. भगवान बुद्ध की अनुराधापुरा यात्रा के बाद यहां बौद्ध धर्म का तेजी से प्रसार हुआ.
बाद में अनुराधापुरा की राजधानी पोलोन्नारुआ में स्थानांतरित कर दी गई. इसके 150 सालों बाद अनुराधापुरा 5 खंडों में अलग-अलग राज्यों के तौर पर विभाजित हो गया.
श्रीलंका में सबसे पहले पुर्तगालियों ने व्यापार प्रारंभ किया, तब कोलंबो व्यापार का मुख्य केंद्र हुआ करता था. बाद में श्रीलंका की राजधानी कैंडी स्थानांतरित कर दी गई. कैंडी श्रीलंका के बीचों-बीचो पहाड़ी पर बसा हुआ है.
श्रीलंका में सबसे ऊंचा स्थान पेड्रो की पहाड़ियां हैं. इस स्थान तक कोई भी नहीं पहुंच सकता, क्योंकि ये पहाड़ी सेना के कब्जे में है और आम लोगों को यहां पहुंचने की मनाही है.
श्रीलंका की दो आधिकारिक भाषाएं हैं. सिंहली और तमिल. यहां अर्धराष्ट्रपति प्रशासन के तहत राज होता है.
श्रीलंका के पास 13640 किलोमीटर लंबा समुद्री तट है. श्रीलंका चारो तरफ से समंदर से घिरा है. श्रीलंका सन 2004 में आई सुनामी से पूरी तरह से बर्बाद हो गया था.
श्रीलंका पूरी दुनिया में चाय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्यातक है। क्या आप जानते हैं कि चाय के बारे में दुनिया को 1867 में पता चला? चाय से पहले श्रीलंका अपनी कॉफी के लिए सुप्रसिद्ध था, लेकिन 1870 के दशक में कॉफी के बागानों के बर्बाद होने की वजह से कॉफी उद्योग बर्बाद हो गया.
श्रीलंका को आजादी सन् 1948 में मिली थी। भारत की आजादी के 1 साल बाद ही श्रीलंका ने ब्रिटेन से आजादी छीन ली थी. इसी साल आयरलैंड और इजरायल भी दुनिया के नक्शे पर आए थे.
श्रीलंका में करीब 20 हजार हाथी अब भी जिंदा बचे हैं. ये किसी भी देश के मुकाबले सर्वाधिक हैं. श्रीलंका में हाथियों के गोबर से कागज बनाया जाता है.
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