गुरुवार, 31 अगस्त 2017
क्यो युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को दी पृथ्वी दान!
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On: अगस्त 31, 2017
महाभारत एक ऐसी कथा है जिसके साथ में कई रोचक किस्से जुड़े हुए हैं। ऐसा ही एक कथा है जब युधिष्ठिन ने अश्वमेघ यज्ञ करने का प्रण किया तो अर्जुन ने समस्त पृथ्वी पर युधिष्ठिर का एक छत्र राज स्थापित कर दिया। यह देखकर युधिष्ठिर के साथ वहां उपस्थित सभी लोग काफी उत्साहित व हर्षित हुए।
फिर भगवान कृष्ण की निगरानी में यज्ञ के लिए भूमि का चयन किया गया। शुभ दिन और शुभ मुहूर्त पर यज्ञ प्रारम्भ हुआ। यज्ञ में शामिल होने के लिए दूर-दूर से राजा-महाराजाओं को आमंत्रित किया गया और सभी इस वैभवशाली यज्ञ को देखने के लिए वहां उपस्थित हुए।
पाण्डवों ने यज्ञ में आए सभी अतिथियों का उचित आदर सत्कार किया। जब यज्ञ पूर्ण हुआ तो युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण धरती ब्राह्मणों को दान में दे दी। लेकिन महर्षि वेदव्यास ने ब्राह्मणों का प्रतिनिधि बनकर वापस से सम्पूर्ण धरती युधिष्ठिर को वापस दे दी। इसके बदले उन्होंने ब्राह्मणों को सोना देने को कहा।
युधिष्ठिर ने वेदव्यास की बात मानते हुए ब्राह्मणों को सोना दान में दिया। जिसको पाकर ब्राह्मण काफी खुश हुए और उन्होंने युधिष्ठिर को आर्शीवाद दिए। इस प्रकार भगवान कृष्ण के निर्देशन में अश्वमेघ यज्ञ सकुशल संपन्न हुआ।
बुधवार, 30 अगस्त 2017
जरसुस्त्र प्राचीन ईरान में धर्म का संस्थापक
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On: अगस्त 30, 2017
पारसी धर्म या 'जरथुस्त्र धर्म' विश्व के अत्यंत प्राचीन धर्मों में से एक है जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक प्रोफेट जरथुष्ट्र ने की थी। इसके धर्मावलंबियों को पारसी या जोराबियन कहा जाता है। यह धर्म एकेश्वरवादी धर्म है। ये ईश्वर को 'आहुरा माज्दा' कहते हैं। इस धर्म के संस्थापक जरथुस्त्र थे। जरथुस्त्र का जन्म प्राचीन ईरान में हुआ था। संभवत: ईरान के सिस्तान प्रांत के रेजेज क्षेत्र में जहां खाजेह पर्वत, हमुन झील है। वहीं कहीं आतिश बेहराम मंदिर के अवशेष आज भी विद्यमान है।
पारसी समुदाय द्वारा महात्मा जरथुस्त्र का जन्म दिवस 24 अगस्त को मनाया जाता है। जरथुस्त्र प्रेम और दया की साक्षात मूर्ति थे। समाधि से निवृत्त होकर रोगी की परिचर्या करना, भारपीड़ित पशु का बोझ स्वयं ढोना, वृद्धों को सहारा देना, दृष्टिहीन को मार्ग बताना, भूखे को भोजन और प्यासे को पानी पिलाना इनकी दिनचर्या थी। जरथुस्त्र के देहांत के बाद उनका प्रभाव धीरे-धीरे फैला। सारे ईरान में यह राज्य धर्म बना। इसके अतिरिक्त रूस, चीन, तुर्किस्तान, आरमेनिया एवं हिन्दुकुश तक इसका प्रभाव फैल गया था।
जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था, जो कुंवारी थी। 30 वर्ष की आयु में जरथुस्त्र को ज्ञान प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई। महान दार्शनिक नीत्से ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम 'दि स्पेक जरथुस्त्र' है।
इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग वही काल था, जबकि राजा सुदास का आर्यावर्त में शासन था और दूसरी ओर हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। माना जाता है कि इस देश को बनाने में भारतीय ऋषि अत्रि का योगदान रहा है। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। जरथुस्त्र ने इस धर्म को एक व्यवस्था दी तो इस धर्म का नाम 'जरथुस्त्र' या 'जोराबियन धर्म' पड़ गया।
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ईरान का प्राचीन इतिहास : अत्यंत प्राचीनकाल में पारस देश आर्यों की एक शाखा का निवास स्थान था। प्राचीन वैदिक युग में तो पारस से लेकर गंगा, सरयू के किनारे तक की सारी भूमि आर्य भूमि थी, जो अनेक प्रदेशों में विभक्त थी। जिस प्रकार भारतवर्ष में पंजाब के आसपास के क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था, उसी प्रकार प्राचीन पारस में भी आधुनिक अफगानिस्तान से लगा हुआ पूर्वी प्रदेश 'अरियान' वा 'एर्यान' (यूनानी एरियाना) कहलाता था जिससे बाद में 'ईरान' शब्द बना।
ईरान के ससान वंशी सम्राटों और पदाधिकारियों के नाम के आगे आर्य लगता था, जैसे 'ईरान स्पाहपत' (ईरान के सिपाही या सेनापति), 'ईरान अम्बारकपत' (ईरान के भंडारी) इत्यादि। प्राचीन पारसी अपने नामों के साथ 'आर्य' शब्द बड़े गौरव के साथ लगाते थे। प्राचीन सम्राट दार्यवहु (दारा) ने अपने को अरियपुत्र लिखा है। सरदारों के नामों में 'आर्य' शब्द मिलता है, जैसे अरियराम्र, अरियोवर्जनिस इत्यादि।
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पारस का नाम पारस कैसे पड़ा : प्राचीन पारस जिन कई प्रदेशों में बंटा था, उसमें पारस की खाड़ी के पूर्वी तट पर पड़ने वाला पार्स या पारस्य प्रदेश भी था जिसके नाम पर आगे चलकर सारे देश का नाम पारस पड़ा जिसका अप्रभंश ही फारस है। इसकी प्राचीन राजधानी पारस्यपुर (यूनानी-पेर्सिपोलिस) थी, जहां पर आगे चलकर 'इस्तख' बसाया गया। वैदिक काल में 'पारस' नाम प्रसिद्ध नहीं हुआ था। यह नाम तखामनीय वंश के सम्राटों के समय से, जो पारस्य प्रदेश के थे, सारे देश के लिए उपयोग किया जाने लगा। यही कारण है जिससे वेद और रामायण में इस शब्द का पता नहीं लगता पर महाभारत, रघुवंश, कथासरित्सागर आदि में पारस्य और पारसीकों का उल्लेख बराबर मिलता है।
प्राचीन पारस कई प्रदेशों में विभक्त था। कैस्पियन समुद्र के दक्षिण-पश्चिम का प्रदेश मिडिया कहलाता था, जो एतरेय ब्राह्मण आदि प्राचीन ग्रंथ का उत्तर मद्र हो सकता है। जरथुस्त्र ने यहां अपनी शाखा का उपदेश किया। पारस के सबसे प्राचीन राज्य की स्थापना का पता इसी प्रदेश से चलता है। एक मत के अनुसार पहले यह प्रदेश अनार्य असुर जाति के अधिकार में था जिनका देश (वर्तमान असीरिया) यहां से पश्चिम में था। यह जाति आर्यों से सर्वथा भिन्न सेम की संतान थी जिसके अंतर्गत यहूदी और अरब वाले हैं।
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ईरान के प्राचनी राजवंश : इस्लाम के पूर्व ईरान का राजधर्म पारसी धर्म था। ईसा पूर्व 6ठी शताब्दी में एक महान पारसीक (प्राचीन ईरानवासी) साम्राज्य की स्थापना 'पेर्सिपोलिस' में हुई थी जिसने 3 महाद्वीपों और 20 राष्ट्रों पर लंबे समय तक शासन किया। इस साम्राज्य का राजधर्म जरतोश्त या जरथुस्त्र के द्वारा 1700-1800
ईसापूर्व स्थापित, 'जोरोस्त्रियन' था और इसके करोड़ों अनुयायी रोम से लेकर सिन्धु नदी तक फैले थे।
अरबों (मुसलमानों) के हाथ में ईरान का राज्य आने के पहले पारसियों के इतिहास के अनुसार इतने राजवंशों ने क्रम से ईरान पर राज्य किया- 1. महाबद वंश, 2. पेशदादी वंश, 3. कवयानी वंश, 4. प्रथम मोदी वंश, 5. असुर (असीरियन) वंश, 6. द्वितीय मोदी वंश, 7. हखामनि वंश (अजीमगढ़ साम्राज्य) 8. पार्थियन या अस्कानी वंश और 9. ससान या सॅसेनियन वंश। महाबद और गोओर्मद के वंश का वर्णन पौराणिक है। वे देवों से लड़ा करते थे।
गोओर्मद के पौत्र हुसंग ने खेती, सिंचाई, शस्त्ररचना आदि चलाई और पेशदाद (नियामक) की उपाधि पाई। इसी से वंश का नाम पड़ा। इसके पुत्र तेहेमुर ने कई नगर बसाए। सभ्यता फैलाई और देवबन्द (देवघ्न) की उपाधि पाई। इसी वंश में जमशेद हुआ जिसके सुराज और न्याय की बहुत प्रसिद्धि है। संवत्सर को इसने ठीक किया और वसंत विषुवत पर नववर्ष का उत्सव चलाया जो जमशेदी नौरोज के नाम से पारसियों में प्रचलित है। पर्सेपोलिस विस्तास्प के पुत्र द्वारा प्रथम ने बसाया, किन्तु पहले उसे जमशेद का बसाया मानते थे। इसका पुत्र फरेंदू बड़ा वीर था जिसने काव: नामी योद्धा की सहायता से राज्यपहारी जोहक को भगाया। कवयानी वंश में जाल, रुस्तम आदि वीर हुए जो तुरानियों से लड़कर फिरदौसी के शाहनामे में अपना यश अमर कर गए हैं। इसी वंश में 1300 ई.पू.. के लगभग गुश्तास्प हुआ जिसके समय में जरथुस्त्रा का उदय हुआ।
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पहला हमला : सेंट एंड्र्यूज विश्वविद्यालय, स्कॉटलैंड के प्रोफेसर अली अंसारी के अनुसार प्राचीन ईरानी अकेमेनिड साम्राज्य की राजधानी पर्सेपोलिस के खंडहरों को देखने जाने वाले हर सैलानी को तीन बातें बताई जाती हैं कि इसे डेरियस महान ने बनाया था। इसे उसके बेटे जेरक्सस ने और बढ़ाया, लेकिन इसे 'उस इंसान' ने तबाह कर दिया जिसका नाम था- सिकंदर।
सन् 576 ईसा पूर्व नए साम्राज्य की स्थापना करने वाला था 'साइरस महान' (फारसी : कुरोश), जो 'हक्कामानिस' वंश का था। इसी वंश के सम्राट 'दारयवउश' प्रथम, जिसे 'दारा' या 'डेरियस' भी कहा जाता है, के शासनकाल (522-486 ईसापूर्व) को पारसीक साम्राज्य का चरमोत्कर्ष काल कहा जाता है। ईसा पूर्व 330 में सिकंदर के आक्रमण के सामने यह साम्राज्य टिक न सका। सन् 224 ईस्वी में जोरोस्त्रियन धर्मावलंबी 'अरदाशीर' (अर्तकशिरा) प्रथम के द्वारा एक और वंश 'सॅसेनियन' की स्थापना हुई और इस वंश का शासन लगभग 7वीं सदी तक बना रहा।
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इस्लाम ने नष्ट कर दिया ईरान : इस्लाम की उत्पत्ति के पूर्व प्राचीन ईरान में जरथुष्ट्र धर्म का ही प्रचलन था। 7वीं शताब्दी में तुर्कों और अरबों ने ईरान पर बर्बर आक्रमण किया और कत्लेआम की इंतहा कर दी। पारसियों को जबरन इस्लाम में धर्मांतरित किया गया और जो मुसलमान नहीं बनना चाहते थे उनको कत्ल कर दिया गया। 'सॅसेनियन' साम्राज्य के पतन के बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा सताए जाने से बचने के लिए पारसी लोग अपना देश छोड़कर भागने लगे। इस्लामिक क्रांति के इस दौर में कुछ ईरानियों ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया और वे एक नाव पर सवार होकर भारत भाग आए तो कुछ तुर्कमेनिस्तान की ओर पलायन कर गए।। जो पलायन कर गए उन्होंने ही पारसी धर्म को आज तक जिंदा बनाए रखा लेकिन जो धर्मान्तरित हो गए उनकी पीढ़ियों ने पारसी धर्म की अवशेष और इतिहास को मिटा दिया।
1979 में ईरान में जब इस्लामिक रेवलूशन हुआ तब कट्टरवादी मुस्लिमों ने ईरान के मंदिरों में आग लगा दी। जोरोऐस्ट्रेनियन पूजास्थलों के प्रतीकों में आग लगा दी गई। जोरोऐस्टर की मूर्तियों को तोड़ दिया गया। इसके बदले अयातुल्ला रूहोल्लाह खोमैनी की तस्वीरें लगा दी गईं।
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अब ईरान को गैर मुस्लिम मुल्क माना जाता है!
इस्लाम के उदय के बाद आदिवासियों को और अन्य आस्था के लोगों के लिए अपने अस्तित्व को बचा पाना आसान नहीं था। इस दौरान कई युद्ध भी हुए। तुर्क और अरबों की फतह के बाद ईरानियों ने शिया मुसलमान बनकर अपने वजूद को बचाया। अंततः एक पारसी देश शिया मुस्लिम बहुल देश बन गया। हालांकि सऊदी अरब वाले अब भी खुद को वास्तविक मुसलमान मानते हैं जबकि पारसी से मुस्लिम बने ईरान को गैर-मुस्लिम। जिनकी मुसलमानों से शत्रुता थी। उल्लेखनीय है कि हालांकि वे सुन्नियों को सहयोग जरूर करते हैं लेकिन उनकी सोच भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले मुसलमानों के बारे में भी यही है कि वे सभी हिन्दू हैं।
धार्मिक मतभेद के कारण सऊदी अरब और ईरान के बीच वैचारिक टकराव हर काल में चरम पर ही रहा है। अरब के लोग अन्य मुल्कों के गैर सुन्नी लोगों को मुसलमान नहीं मानते हैं। खासकर उन्होंने शियाओं को तो इस्लाम से खारिज ही कर दिया है। कुछ वर्ष पूर्व ही सऊदी अरब के सबसे बड़े धर्मगुरु मुफ्ती अब्दुल अजीज अल-शेख ने घोषणा कर दी थी कि ईरानी लोग मुस्लिम नहीं हैं। अब्दुल-अजीज सऊदी किंग द्वारा स्थापित इस्लामिक ऑर्गेनाइजेशन के चीफ हैं। उन्होंने कहा कि ईरानी लोग 'जोरोएस्ट्रिनिइजम' यानी पारसी धर्म के अनुयायी रहे हैं। उन्होंने कहा था, 'हम लोगों को समझना चाहिए कि ईरानी लोग मुस्लिम नहीं हैं क्योंकि वे मेजाय (पारसी) के बच्चे हैं। इनकी मुस्लिमों और खासकर सुन्नियों से पुरानी दुश्मनी रही है।
मंगलवार, 29 अगस्त 2017
एकलव्य रहस्य जानकर चौंक जाएंगे आप
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On: अगस्त 29, 2017
प्राचीन भारत में हुए हजारों धनुर्धरों में सर्वश्रेष्ठ कौन था? यह तय करना मुश्किल है। उन्हीं धनुर्धरों में से एक एकलव्य थे। एकलव्य को कुछ लोग शिकारी का पुत्र कहते हैं और कुछ लोग भील का पुत्र। कुछ लोग यह कहकर प्रचारित करते हैं कि शूद्र होने के कारण एकलव्य को गुरु द्रोणाचार्य ने शिक्षा नहीं दी थी। लेकिन यह सभी बातें गलत है।
एकलव्य को लेकर समाज में बहुत तरह की भ्रांतियां इसलिए है क्योंकि लोग महाभारत और पुराण पढ़ते नहीं और जिसने जो लिख दिया उस लिखे हुए की बात को ही सत्य मानते हैं। एक झूठ को जब बार बार प्रचारित किया जाता है तो वह सत्य ही लगने लगता है। सत्य को जानने के लिए तर्क को अलग रखकर धैर्य का परिचय देना होता है। सभी ने महाभारत की इस कथा को तोड़-मरोड़कर अपने-अपने तरीके से लिखा।
दरअसल, महाभारत का संपूर्ण प्रपंच श्रीकृष्ण की इच्छा से संचालित होता है। पांडव पक्ष के सभी वरिष्ठ लोगों ने अर्जुन को बचाने और उसे महान बनाने के लिए हर तरह का भेद और प्रपंच किया। यदि गुरु द्रोण ने एकलव्य से अंगूठा मांग लिया था तो उसके पीछे भी श्रीकृष्ण की ही इच्छा थी।
महाभारत में एक स्थान पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट किया कि 'तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना निषादराज पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए।'
एकलव्य अपना अंगूठा दक्षिणा में नहीं देते या गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में नहीं मांगते तो इतिहास में एकलव्य का नाम नहीं होता। एकलव्य को इस बात का कभी दुख नहीं हुआ कि गुरु द्रोणाचार्य ने उनसे अंगूठा मांग लिया। गुरु द्रोणाचार्य भी एक ऋषि थे वे भलिभांति जानते थे कि उन्हें क्या करना है। वे भीष्मपितामह और अर्जुन को दिए हुए वचन से बंधे थे। गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न हो गया था।
उन्होंने भीष्मपितामह को वचन दिया था कि वे कौरववंश के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे और अर्जुन को वचन दिया था कि तुमसे बड़ा कोई धनुर्धर नहीं होगा। गुरु द्रोणाराचार्य ने यह नहीं कहा था कि मैंने किसी शूद्र को शिक्षा नहीं देने का वचन दिया है। लेकिन इस घटना को कुछ लोगों के समूह ने गलत अर्थो में लिया और उस अर्थ को बड़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करके समाज में विभाजन किया। इस सामाजिक विभाजन को हवा देने वाले संगठन भी कौन है यह सब जानते हैं।
द्रोणाचार्य ने जिस अर्जुन को महान सिद्ध करने के लिए एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया था, उसी अर्जुन के खिलाफ उन्हें युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र की हत्या का कारण भी वे ही बने थे और उसी अर्जुन के साले के हाथों उनकी मृत्यु को प्राप्त हुए थे। द्रोणाचार्य के चरित्र को समझना अत्यंत कठिन है।
राजपुत्र थे एकलव्य : महाभारत काल में प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी।
उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्यों के समान ही थी। निषादराज हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। द्रोणभक्त एकलव्य निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र थे। उनकी माता का नाम रानी सुलेखा था।
महाभारत लिखने वाले वेद व्यास किसी ब्राह्मण, छत्रिय जाति से नहीं थे वे भी निषाद जाति से थे जिसे आजकल सबसे पिछड़ा वर्ग का माना जाता है। महाभारत के आदिपर्व में एकलव्य की कथा आती है।
धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर की दादी सत्यवती एक निषाद कन्या ही थी। सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य की पत्नियों ने वेदव्यास के नियोग से दो पुत्रों को जन्म दिया और तीसरा पुत्र दासी का था। अम्बिका के पुत्र धृतराष्ट, अम्बालिका के पुत्र पांडु और दासीपुत्र विदुर थे।
एकलव्य को क्यों कहा जाता है एकलव्य? प्रारंभ में एकलव्य का नाम अभिद्युम्न रखा गया था। प्राय: लोग उसे अभय नाम से ही बुलाते थे। पांच वर्ष की आयु में एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरुकुल में की गई। यह ऐसा गुरुकुल था जहां सभी जाति और समाज के उच्चवर्ग के लोग पढ़ते थे।
एकलव्य का जिस तरह चित्रण किया जाता है वह उस तरह के नहीं थे। वे एक राजपुत्र थे और उनके पिता की कौरवों के राज्य में प्रतिष्ठा थी। बालपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में बालक की लय, लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरु ने बालक का नाम 'एकलव्य' रख दिया था। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया।
एक बार पुलक मुनि ने जब एकलव्य का आत्मविश्वास और धनुष बाण को सिखने की उसकी लगन को देखा तो उन्होंने उनके पिता निषादराज हिरण्यधनु से कहा कि उनका पुत्र बेहतरीन धनुर्धर बनने के काबिल है, इसे सही दीक्षा दिलवाने का प्रयास करना चाहिए। पुलक मुनि की बात से प्रभावित होकर राजा हिरण्यधनु, अपने पुत्र एकलव्य को द्रोण जैसे महान गुरु के पास ले जाते हैं।
एकलव्य-द्रोण संवाद : उस समय धनुर्विद्या में गुरु द्रोण की ख्याति थी। एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। एकलव्य को अपनी लगन और निष्ठा पर पूर्ण विश्वास था।
एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के पास आकर बोला- 'गुरुदेव, मुझे धनुर्विद्या सिखाने की कृपा करें!' तब गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न हुआ क्योंकि उन्होंने भीष्म पितामह को वचन दे दिया था कि वे केवल कौरव कुल के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे और एकलव्य राजकुमार तो थे लेकिन कौरव कुल से नहीं थे। अतः उसे धनुर्विद्या कैसे सिखाऊं?
अतः द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा- 'मैं विवश हूं तुझे धनुर्विद्या नहीं सिखा सकूंगा।'
एकलव्य घर से निश्चय करके निकला था कि वह केवल गुरु द्रोणाचार्य को ही अपना गुरु बनाएगा। द्रोण की ओर से इंनकार करने के बाद हिरण्यधनु तो वापिस अपने राज्य लौट आए लेकिन एकलव्य को द्रोण के सेवक के तौर पर उन्हीं के पास छोड़ गए। द्रोण की ओर से दीक्षा देने की बात नकार देने के बावजूद एकलव्य ने हिम्मत नहीं हारी, वह सेवकों की भांति उनके साथ रहने लगा। द्रोणाचार्य ने एकलव्य को रहने के लिए एक झोपड़ी दिलवा दी। एकलव्य का काम बस इतना होता था कि जब सभी राजकुमार बाण विद्या का अभ्यास कर चले जाएं तब वह सभी बाणों को उठाकर वापस तर्कश में डालकर रख दें।
जब द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को अस्त्र चलाना सिखाते थे तब एकलव्य भी वहीं छिपकर द्रोण की हर बात, हर सीख को सुनता था। अपने राजकुमार होने के बावजूद एकलव्य द्रोण के पास एक सेवक बनकर रह रहा था। एकलव्य ने अपने खाली समय में द्रोण की सीख के अनुसार अरण्य में रहते हुए ही एकांत में तीर चलाना सीखता था।
जब पता चला द्रोणाचार्य को : एक दिन अभ्यास जल्दी समाप्त हो जाने के कारण कौरववंशी सभी राजकुमार समय से पहले ही लौट गए। ऐसे में एकलव्य को धनुष चलाने का एक अदद मौका मिल गया। लेकिन अफसोस उनके अचूक निशाने को दुर्योधन ने देख लिया और द्रोणाचार्य को इस बात की जानकारी दी।
द्रोणाचार्य ने एकलव्य को वहां से चले जाने को कहा। हताश-निराश एकलव्य अपने महल की ओर रुख कर गया, लेकिन रास्ते में उसने सोचा कि वह घर जाकर क्या करेगा, इसलिए बीच में ही एक आदिवासी बस्ती में ठहर गया। उसने आदिवासी सरदार को अपना परिचय दिया और कहा कि वह यहां रहकर धनुष विद्या का अभ्यास करना चाहता है। सरदार ने प्रसन्नतापूर्वक एकलव्य को अनुमति दे दी। आदिवासियों या भीलों के बीच रहने के कारण एकलव्य को शिकारी या भील जाति का मान लिया गया।
एकलव्य ने आदिवासियों के बीच रहकर वहां गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाई और मूर्ति की ओर एकटक देखकर ध्यान करके उसी से प्रेरणा लेकर वह धनुर्विद्या सीखने लगा। मन की एकाग्रता तथा गुरुभक्ति के कारण उसे उस मूर्ति से प्रेरणा मिलने लगी और वह धनुर्विद्या में बहुत आगे बढ़ गया।
समय बीतता गया और कौरव वंश के अन्य बालकों, कौरव और पांडवों के साथ-साथ एकलव्य भी युवा हो गया। द्रोणाचार्य ने बचपन में ही अर्जुन को यह वचन दिया था कि उससे बेहतर धनुर्धर इस ब्रह्मांड में दूसरा नहीं होगा। लेकिन एक दिन द्रोण और अर्जुन, दोनों की ही यह गलतफहमी दूर हो गई, जब उन्होंने एकलव्य को धनुष चलाते हुए देखा।
राजकुमारों का कुत्ता : एक बार गुरु द्रोणाचार्य, पांडव एवं कौरव को लेकर धनुर्विद्या का प्रयोग करने अरण्य में आए। उनके साथ एक कुत्ता भी था, जो थोड़ा आगे निकल गया। कुत्ता वहीं पहुंचा जहां एकलव्य अपनी धनुर्विद्या का प्रयोग कर रहा था। एकलव्य के खुले बाल एवं फटे कपड़े देखकर कुत्ता भौंकने लगा।
एकलव्य ने कुत्ते को लगे नहीं, चोट न पहुंचे और उसका भौंकना बंद हो जाए इस ढंग से सात बाण उसके मुंह में थमा दिए। कुत्ता वापिस वहां गया, जहां गुरु द्रोणाचार्य के साथ पांडव और कौरव थे।
तब अर्जुन ने कुत्ते को देखकर कहा- गुरुदेव, यह विद्या तो मैं भी नहीं जानता। यह कैसे संभव हुआ? आपने तो कहा था कि मेरी बराबरी का दूसरा कोई धनुर्धारी नहीं होगा, किंतु ऐसी विद्या तो मुझे भी नहीं आती।'
द्रोणाचार्य ने आगे जाकर देखा तो वहां हिरण्यधनु का पुत्र गुरुभक्त एकलव्य था।
द्रोणाचार्य ने पूछा- 'बेटा! यह विद्या कहां से सीखी तुमने?'
एकलव्य- 'गुरुदेव! आपकी ही कृपा से सीख रहा हूं।'
द्रोणाचार्य तो वचन दे चुके थे कि अर्जुन की बराबरी का धनुर्धर दूसरा कोई न होगा। किंतु यह तो आगे निकल गया। अब गुरु द्रोणाचार्य के लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया था।
एकलव्य की प्रतिभा को देखकर द्रोणाचार्य संकट में पड़ गए। लेकिन अचानक उन्हें एक युक्ति समझ में आई और उन्होंने कहा- 'मेरी मूर्ति को सामने रखकर तुमने धनुर्विद्या तो सीख ली, किंतु मेरी गुरुदक्षिणा कौन देगा?'
एकलव्य ने कहा- 'गुरुदेव, जो आप मांगें?'
द्रोणाचार्य ने कहा- तुम्हें मुझे दाएं हाथ का अंगूठा गुरुदक्षिणा में देना होगा।' उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में उसके दाएं हाथ का अंगूठा इसलिए मांगा ताकि एकलव्य कभी धनुष चला ना पाए।
एकलव्य ने एक पल भी विचार किए बिना अपने दाएं हाथ का अंगूठा काटकर गुरुदेव के चरणों में अर्पण कर दिया। धन्य है एकलव्य जो गुरुमूर्ति से प्रेरणा पाकर धनुर्विद्या में सफल हुआ और गुरुदक्षिणा देकर दुनिया को अपने साहस, त्याग और समर्पण का परिचय दिया। आज भी ऐसे साहसी धनुर्धर एकलव्य को उसकी गुरुनिष्ठा और गुरुभक्ति के लिए याद किया जाता है।
आधुनिक तिरंदाजी के जनक : कुमार एकलव्य अंगूठा बलिदान करने के बाद पिता हिरण्यधनु के पास चला जाता है। एकलव्य अपने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या में पुन: दक्षता प्राप्त कर लेता है। आज के युग में आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओं में अंगूठे का प्रयोग नहीं होता है, अत: एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगा।
पिता की मृत्यु के बाद एकलव्य श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता हैं और अमात्य परिषद की मंत्रणा से वह न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद जाति के लोगों की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित करता है और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार भी करता है।
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